भारतीय काव्यशास्त्रियों ने जहाँ अलौकिक रस के भेद प्रभेद किये हैं वहीं रस की एक मात्रता को भी स्थान दिया है। इस कल्पना का आधार भी प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ हैं। जिसमें कहीं असंख्य देवी-देवताओं की कल्पना की गई है तो कहीं ब्रह्म एक ही है जैसे दार्शनिक तथ्य स्वीकार किये गये हैं। व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाय तो यह तथ्य सामने आता है कि जीवन में सुख-दुःख की सम्मिश्रित अनुभूतियाँ होती है और उन्हें मात्र सुखात्मक या दुःखात्मक नहीं कह सकते और रस की एकमात्रता तो समग्र रसानुभूतियों को एक अखण्ड अनुभूति मानने पर होगी, जो सम्भव नहीं है।
पुनरपि इस परिप्रेक्ष्य में आचार्य मम्मट के विचार से रस की विगलितवेद्यान्तर भाव अर्थात् निर्विकल्पक स्वरूप1 को सदा ध्यान में रखा जा सकता है। व्यावहारिक दृष्टि से मूल रस परिकल्पना का महत्त्व चाहे न हो लेकिन रसशास्त्रियों की दृष्टि में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। विषय की महत्ता को ध्यान में रखते हुए इसका अध्ययन आवश्यक है। रस की अलौकिकता के संदर्भ में नवरसों का संस्कृत साहित्य के काव्यों महाकाव्यों में भी उपलब्ध रसों का प्रसंगानुकूल अध्ययन प्रस्तुत शोध–पत्र में किया जाएगा।