“वेदोऽखिलो धर्ममूलम्” यह सर्व विदित है कि वेद सभी धर्मों के मूल स्रोत हैं। यह वाक्य इस दृष्टि से चरितार्थ होता है, क्योंकि धर्म का आधार नीति है तथा नीति को ही वेद परिभाषित करते हैं, अनीति को नहीं। धर्म और नीति में कोई भेद नहीं अपितु अभिन्न सम्बन्ध है, अर्थात् जो नैतिक दृष्टि से यथार्थ है वह धर्म है, तथा जो धर्म की दृष्टि से यथार्थ है वही नैतिक है। दोनों ही ऐहिक तथा पारलौकिक सुख रूपी साध्य के साधन हैं। कहा भी गया है- “यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः” “नीयन्ते संलभ्यन्ते उपायादयः ऐहिकामुष्मिकार्थाः वा अनया”
परन्तु लोकव्यवहार में धर्म का पालन पारलौकिक (जीवनोपरान्त) हेतु माना जाता है, और नैतिकता का पालन सुष्ठु जीवनयापनार्थ (लोकव्यवहार हेतु) माना जाता है। “आर्जवं हि कुटिलेषु न नीतिः” नीति शब्द “णीञ् प्रापणे’ धातु से निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ होता है ले जाना “नयनात् नीतिरुच्यते” अर्थात् जो सुपन्थ पर ले जाये वह नीति है। वेद भी एतदर्थ प्रेरणा देते हैं “अग्ने नय सुपथा”
जो कोई नीति सम्बद्ध है वह नैतिक है, नैतिक दृष्टिकोण से किया गया कार्य ही नैतिकता है। अर्थात् नीतिगत सभी मर्यादायों का पालन पूर्वक लोकव्यवहार में लाना नैतिकता है। यह नैतिकता ही मानव के जीवन यापन का मापदण्ड है। तथा सामाजिक एवं व्यक्तिगत गतिशीलता के लिये परमावश्यक है। नैतिक मूल्यों से ही मानव सामाजिक, आध्यात्मिक, राजनैतिक, वैयक्तिक आदि क्षेत्रों में पारदर्शिता प्राप्त कर सकता है।