भगवान् भक्त और भक्ति ये तीन शब्द एक दूसरे को जोड़ते हैं। जिस प्रकार हमें सुख में दुःख में भगवान् चाहिए तथैव भगवान् को भी भक्त की भक्ति चाहिए। भक्ति में इतनी शक्ति है कि वो भगवान को भक्त के पास आने को मजबूर कर देती है । एक भक्त को भक्ति के लिए भगवान की जरूरत नहीं, भक्ति है तो भगवान स्वयं ही आ जातें है । ईश्वर सब में है। मैं जो कुछ भी करता हूं उस सबको ईश्वर देखते हैं, जो ऐसा अनुभव करता है उसको कभी पाप नहीं लगता। उसका प्रत्येक व्यवहार उचित है और यही तो भक्ति है। जिसके व्यवहार में दंभ है, अभिमान है, कपट है, उसका व्यवहार शुद्ध नहीं जिसका व्यवहार शुद्ध नहीं उसे भक्ति में आनंद आता नहीं। भक्त के व्यव्हार में शुद्धता होनी चाहिए जिसका व्यवहार शुद्ध है वह जहां बैठा है, वहीं भक्ति करता है और वहीं उसका मंदिर है। विद्वानों का मानना है की व्यव्हार और भक्ति में बहुत अंतर नहीं है।रास्ता चलते, गाड़ी में यात्रा करते अथवा कोई भी कार्य करते सर्वकाल में और सर्वस्थल में भगवान् के प्रति सतत् भक्ति ही भक्त को सच्चा भक्त बनता है । भक्त के प्रत्येक कार्य में ईश्वर का अनुसंधान हो इसे ही भक्ति कहते हैं।