शुक्ल यजुर्वेदीय शिवसंकल्प सूक्त का चिन्तनीय तत्त्व
देवराज
व्यक्तिगत जीवन में तो मन का महत्त्व है ही परन्तु सामाजिक दृष्टि से भी मन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। यदि सबका मन शुभ सङ्कल्प, शुभ निश्चय एवं शुभ विचारों वाला हो जाता है तो किसी भी प्रकार का ईर्ष्या द्वेष, वैमनस्य, कलहादि नहीं रहेगा। परस्पर समभाव, सौहार्द होगा। परहित भावना से प्रेरित सब प्राणी सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय में व्याप्त होंगे जिससे राष्ट्र प्रगति पथ पर अग्रसर हो सर्वविध सुख समृद्धि प्राप्त करेगा।
साधारण मनुष्यों द्वारा किए जाने वाले कर्मों से लेकर अत्यन्त मेधावी विद्वानों द्वारा किए जाने वाले कर्मों तक सभी कर्म मन की सहायता से ही किए जाते हैं। चित की एकाग्रता के बिना अभीष्ट कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती।
'मन अपूर्व है' इसके दो अभिप्राय हैं –
1) यह अद्वितीय है क्योंकि अद्भुत सामर्थ्य वाला है।
2) जिससे पूर्व अन्य इन्द्रियों की सृष्टि नहीं हुई थी 'न विद्यते पूर्वं यस्य तत्' । मन सबसे पहले था क्योंकि सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व एक बौद्धिक तत्त्व ने मन से इच्छा की 'एकोऽहं बहु स्याम् प्रजायै'।
आजकल सर्वत्र अशान्ति असंतोष, अराजकता, अनुशासनहीनता, असहिष्णुता का साम्राज्य इसी कारण व्याप्त है क्योंकि सबके मन में स्वार्थ, ईर्ष्या द्वेष आदि की कुभावनाएँ प्रबल हो गई हैं।
मन ही इन्द्रियों का प्रकाशक है क्योंकि उसी के द्वारा प्रवृत्त किए जाने पर वे अपने विषयों को ग्रहण करती हैं। तथा जो सब विद्याओं का आधार है। इस कारण वह पूजनीय है। वह सब प्राणियों के भीतर विद्यमान है। वह अन्दर से बोध करवाने वाला है। वह ऐसा मेरा मन शुभ निश्चय वाला हो, उत्तमोत्तम विचारों वाला हो। "तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु"।