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International Journal of Sanskrit Research
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International Journal of Sanskrit Research

2023, Vol. 9, Issue 2, Part A

संस्कृत नाटकों में पर्यावरण चिन्तन

डॉ. तीर्थानंद मिश्रा, सूर्यबाला चौबीसा

प्रततशाख्यों में व्यंजन वर्णो को आधी मात्रा में उच्चाररत होने वाली ध्वनि माना गया है। मात्र चतुरध्यातयका इसका अपिाद है, जो इसका उच्चारर्ण काल एक मात्रा मानती है। नाससक्य ध्वनियों के उच्चारर्ण में अन्य ध्वनियों की अपेक्षा अधधक समय लगता है। अिसान में स्स्थत उत्तम स्पशों के उच्चारर्ण में ऐसा होता है। हस्व-स्वर के बाद उच्चाररत होने वाले यकार, वकार तथा लकार का उच्चारर्ण दो मात्रा काल में होता है एिं ककसी व्यंजन के पश्चात् उच्चररत होने पर इनका उच्चारर्ण डेढ़ मात्राकाल में होता है तथा दीर्य स्वर से पूर्व उच्चररत होने वाला रेफ एकमात्रत्रक उच्चाररत होता है। व्यंजन का मापन सामान्यतः अधयमात्रा क्यों माना गया था, इसका कारर्ण यह बतलाया गया है कक व्यंजन का अधयमात्रा में उच्चररत होना उसका स्वर के साथ संपकय के कारर्ण ही है। व्यंजनों के उच्चारर्ण में मात्राधधक्य का विधान उसके आधारभूत स्वर के प्रभाव के कारर्ण ही ककया गया है। सियसम्मत-सशक्षा में स्वररहित व्यंजन का उच्चारर्ण काल चौथाई मात्रा माना गया है।
Pages : 30-32 | 438 Views | 152 Downloads


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How to cite this article:
डॉ. तीर्थानंद मिश्रा, सूर्यबाला चौबीसा. संस्कृत नाटकों में पर्यावरण चिन्तन. Int J Sanskrit Res 2023;9(2):30-32.

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