ब्रह्मविद्या अथवा आध्यात्मविद्या के प्रतिपादक उपनिषत्ग्रंथों में शुक्लयजुर्वेद की वाजसनेयी शाखा की काण्व और मध्यानन्दिन संहिता से सम्बद्ध ईशावास्योपनिषद् प्रमुख है। यहाँ यावज्जीवन कर्म करने का निर्देश अर्थात् कर्त्तव्यभावना का चित्रण किया गया है। साथ ही यहाँ अमृतत्व की प्राप्ति के लिए व्यष्टि को छोड़कर समष्टि को अपनाने, आत्मा के स्वरूप एवं विद्या-अविद्या, ज्ञान-कर्म, सम्भूति-असम्भूति जैसे परस्पर विपरीत भावों के तार्किक समन्वय के फलस्वरूप अमरत्व की प्राप्ति आदि के विवेचन पर प्रकाश डाला गया है।