संस्कृत वाङ्मय में पौराणिक साहित्य का एक विषिष्ट स्थान है। पुराणों में भारत की सत्य और शास्वत आत्मा निहित है। इसके अध्ययन के बिना मानव का ज्ञान ही अपूर्ण रहता है। श्रीमद्भागवतपुराणानुसार धर्म का फल मोक्ष है उसकी सार्थकता अर्थ प्राप्ति में नहीं हैं अर्थ केवल धर्म के लिए है। भोग विलास उसका फल नहीं माना गया है। यद्यपि वेद भारतीय-धर्म के मूलाधार हैं, पर केवल उन्हीं के पठन-पाठन से मनुष्य के सम्पूर्ण स्वरूप का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, अतः चाहे मनुष्य चारों वेदों का उपनिषदों सहित अध्ययन कर ले पर यदि उसे पुराणों की जानकारी नहीं है, तो उसे विद्वान् नहीं कहा जाएगा। लोक-जीवन के सभी पक्ष इनमें अच्छी तरह प्रतिपादित हैं। ऐसा कोई ज्ञान-विज्ञान नहींय मनुष्य-जीवन का कोई ऐसा अंग नहीं जिसका निरूपण पुराणों में न हुआ हो। जिस विषय को अन्य माध्यमों से समझने में अत्यधिक कठिनाई होती है, वे अत्यन्त रोचक ढ़ग से सरल भाषा में आख्यानादिरूपेण पुराणों में वर्णित हुए हैं। श्रीमद्भागवतपुराण में धर्म के तीस लक्षण वर्णित है। प्रस्तुत षोध-पत्र में धर्म के इन्हीं लक्षणों का आचरण सभी मनुष्यों का परम धर्म कथित है।