भारतीय धर्मशास्त्र में मानव-जीवन के चार पुरूषार्थ विवेचित हैं- धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष। धर्म, अर्थ, तथा काम भौतिक पुरूषार्थ हैं और मोक्ष आध्यात्मिक पुरूषार्थ है। धर्म-अर्थ-काम व्यक्ति को सांसारिकता की ओर प्रवृत करते हैं और मोक्ष व्यक्ति को सांसारिकता से निवृत्त करता है। संसार आवागमन, जन्म-मरण और नश्वरता का केन्द्र है। ज्ञान के अभाव के कारण मानव इस संसार के चक्र में फंसा रहता है और जन्म-मरण के चक्रव्यूह से मुक्त नहीं हो पाता जिस कारण उसे नाना प्रकार के कष्टों का अनुभव करना पड़ता है, इन कष्टों से आत्यन्तिक मुक्ति पाना ही मोक्ष है। मोक्ष की अवधारणा हमारे वेद, दर्शन, ऐतिहासिक ग्रन्थ, साहित्य, आदि सभी विधाओं में प्राप्त होती है। महाभारत में भी मोक्ष तत्त्व का सविस्तार वर्णन है। महाभारतीय मुक्ति जीव (पुरूष) द्वारा अहं त्याग और नारायण में अवस्थित हो जाने पर या स्वयं को परब्रह्म सदृश्य समझने पर ही सम्भव है। शान्तिपर्व के अनुसार आत्मज्ञान ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा व्यक्ति का सांसारिक वस्तुओं के प्रति मोह समाप्त हो जाता है और वह सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर, जगत् को मिथ्या समझकर, परमाात्मा में लीन होने लगता है, इस प्रकार ’ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ की अनुभूति ही मोक्ष है।