काव्यशास्त्रीय परम्परा में निबद्ध संस्कृत कवियों का कर्म उनकी संवेदनाओं का अद्भुत तरंग है। उसका दायित्व केवल ‘इतिवृत‘ का वर्णन मात्र नहीं होता, वह तो अपनी सफल तूलिका से ऐसा तथ्य सहृदय सामाजिकों के लिये प्रस्तुत करता है, जिससे पाठकों को वेद्यान्तर - सम्पर्कशून्य, अलौकिक आनन्द की अनुभूति हो सके। जगत् की असारता और उद्वेगजनकता को देखकर महाकवियों ने लोकोत्तर आनन्द की उपलब्धि पुरस्सर चतुवर्ग फलप्राप्ति के लिये काव्यात्मिका सारस्वतीसृष्टि का निर्माण किया है। इसीलिए प्रभुसम्मित वेदशास्त्रादि तथा सुहृत्सम्मित पुराणेतिहास से विलक्षण सत्कवियों की मंजु भाषिणी - भणिति - कामिनी की भाँति मानव मन को आह्लादित करती हुयी, अपूर्व अलौकिक आनन्द की उपलब्धि कराती है। इस सन्दर्भ में आनन्दवर्धन का यह कथन सर्वथा उपयुक्त है।
अतिशय रमणीय तत्त्वों को प्रवाहित करती हुयी महाकवियों की वाणी, सरस जनवाणी की गीति के रूप में उसकी विलक्षण प्रतिभा को सूचित करती है। वस्तुतः कवि जन प्रतिनिधि होता है, उसके विचार सबके विचार होते है, इसलिए उसकी अनुभूति ललितपदकदम्बक के रुप में सहृदयों के हृदय में प्रविष्ट होकर जड़-चेतनात्मक जगत् से उसका तादात्म्य करा देती है।
जहाँ स्वकीय और परकीय की क्षोदीयसी भावना समाप्त हो जाती है। जिससे सहृदय सामाजिक अपने अन्तः स्थित रत्यादिभावों का आस्वादन करता है। यह आस्वादन ही काव्य की परा उपनिषद् है । ऐसी अनुभूति कराने में सक्षम कवि ही रससिद्ध कवीश्वर की उपाधि पाते है और इनका यह रस काव्य का हृदय कहलाता है।