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International Journal of Sanskrit Research
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2025, Vol. 11, Issue 4, Part A

आयुर्वेद में अग्नि की अवधारणा एवं महत्व

कल्पना कुमारी

आयुर्वेद की अवधारणा त्रिदोष की अवधारणा पर आधारित है। ये त्रिदोष चयापचय के मूल सिद्धांत हैं, तदनुसार मनुष्यों को तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है, अर्थात् वात-प्रकृति, पित्त-प्रकृति और कफ-प्रकृति। वात, पित्त और कफ में असंतुलन के कारण रोग होता है और जब संतुलित चयापचय बहाल हो जाता है तो यह ठीक हो जाता है। अतः तीनों दोषों के संतुलन को बनाए रखने के लिए चयापचय की अवधारणा का ज्ञान आवश्यक है।
आयुर्वेद के अनुसार, जीवन को बनाए रखने के लिए मुख्य कारक अग्नि है, और यह पाचन और चयापचय के लिए ज़िम्मेदार एक बहुत ही श्रेष्ठ इकाई है। अग्नि का उचित रखरखाव व्यक्ति को लंबी उम्र जीने में मदद करता है और इसकी गड़बड़ी कई तरह की बीमारियों को जन्म देती है। आचार्य चरक ने अग्नि के महत्व का उल्लेख किया है, जब किसी व्यक्ति की अग्नि सम होती है यानी संतुलन में होती है, तो व्यक्ति बिल्कुल स्वस्थ होता है और लंबा, स्वस्थ और खुशहाल जीवन जीता है लेकिन अगर अग्नि का कार्य बंद हो जाता है तो व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
Pages : 31-35 | 57 Views | 27 Downloads


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How to cite this article:
कल्पना कुमारी. आयुर्वेद में अग्नि की अवधारणा एवं महत्व. Int J Sanskrit Res 2025;11(4):31-35. DOI: 10.22271/23947519.2025.v11.i4a.2707

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