भारतीय चिंतन के युग-पुरुष महर्षि वाल्मीकि हैं। आदिकाव्य आर्ष ग्रंथ पहले है, काव्य बाद में। उस काव्य की रचना के लिये स्वयं ब्रह्मा जी ने उन्हें प्रेरित किया। यह महाकाव्य हमारे साहित्य का उपजीव्य है। महर्षि वाल्मीकि भारतीय संस्कृति के व्याख्याता हैं। सामान्य रूप से एक सभ्य जाति के साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, नैतिक, आध्यात्मिक, कलात्मक विचारों एवं कार्यकलापों को संस्कृति के अन्तर्गत लिया जाता है। किसी भी देश, जाति या व्यक्ति के सारे आदर्श एवं सामाजिक परम्परायें तथा ऐतिहासिक निधियाँ, जीवन निर्वाह की शैली सब संस्कृति के अन्तर्गत आते हैं। हिमालय की अधित्यका से लेकर समुद्र की बेला तक एक विराट संस्कृति से हमारा यह देश अनुस्यूत हैं।
भारतीय संस्कृति का इतिवृत्त युगों का इतिवृत्त है। गंगा-यमुना के पवित्र पुलिन पर संस्कृति के संदर्भ में जो चिंतन हुआ वह चिंतन धारा ऋग्वेद के पावन मंत्रों से होती हुई, ब्राह्मण, उपनिषद, आरण्यक एवं स्मृतियों के रूप में अजस्त्र रूप से प्रवाहित हो रही है। इसकी पवित्रता एवं प्रवाह अक्षुण्य है और रहेगा। यह बात दूसरी है कि गंगा की पवित्र धारा के समान अनेक उपधाराओं के मिलने पर भी ना इसका स्वरूप नष्ट हुआ ना ही यह कहीं विलुप्त हो पायी। यही स्थिति हमारी संस्कृति की भी है। यह विश्व की प्रथम संस्कृति है। इसके लिये ही मनु ने ऊध्र्वबाहु होकर कहा-