किन्नौर में देव परम्परा एवं लोक संस्कृति का अध्ययन
तनजिन लोबजङ्ग
मनुष्य जीवन में जन्म, विवाह और मृत्यु संस्कार सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है यह संस्कार न केवल जीवन के आरम्भ को पवित्र मानते हैं बल्कि व्यक्ति के जीवन में नैतिक और सामाजिक मूल्य भी समाहित करते हैं, इन संस्कारों का उद्देश्य एक नये जीवन की शुरूआत को धार्मिक मान्यता देना है।1 संस्कार व्यक्ति को धर्म संस्कृति और नैतिकता के प्रति जागरूक बनाते हैं यह संस्कार धार्मिक मुल्यों को आत्मसात करने का एक माध्यम है। ये संस्कार किसी भी लोक संस्कृति का आधार होते हैं। लोक संस्कृति वह सांस्कृतिक सम्पत्ति होती है, जो आम जीवन मे प्रचलित होती है और विशिष्ट समुदाय की पहचान को दर्शाती है। इसमे लोकगीत, लोकनृत्य, कथाएं, रिति-रिवाज, और पारम्परिक कृतियाँ शामिल होती है। यह संस्कृति स्थानीय जीवन के अनुभवों, परम्पराओं और मान्यताओं का प्रतीक होती है, हिमाचल-प्रदेश की लोक संस्कृति उसकी एतिहासिक पृष्ठभूमि विविध जातीय समुहों, और भौगोलिक विशेषताओं से प्रभावित है।
यह संस्कृति प्रदेश के पारम्परिक रीति-रिवाज, धार्मिक मान्यताएं, कला, संगीत, और नृत्य में प्रकट होती है। हिमाचल-प्रदेश को “देवभूमि” अर्थात देवताओं की भूमि के नाम से जाना जाता है। यहाँ रहने वाले पहाड़ी समुदाय के अपने स्थानीय देवता हैं, जिन्हें देवतासाहब कहा जाता है, इन देवताओं को भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश का स्वरूप माना गया है, धर्म की शक्ति के कारण यह देवता युगों युगों से समाज पर शासन करते आ रहे हैं। किन्नौर में देव-परम्परा एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और धार्मिक पहलू है। यहाँ के लोक संस्कृति में देवी देवताओं की पूजा विशेष महत्व रखती है। स्थानीय देवताओं को देव कहा जाता है,और यह अक्सर गाँव और क्षेत्रों के संरक्षक माने जाते हैं। हिमाचल क्षेत्र ग्राम देवताओं से भरा है और स्थानीय लोगों की उनमें दृढ-आस्था है। लेख में शोधकर्ता के द्वारा भारतीय राज्य हिमाचल-प्रदेश के किन्नौर क्षेत्र के ग्राम देवताओं तथा संस्कृति के बारे में धार्मिक कथाओं पर चर्चा की गई है।