चन्द्रशेखरकृत सुर्जनचरित महाकाव्य में पदपूर्वार्द्धवक्रता
प्रज्ञा आर्या, त्रिलोक चन्द अवस्थी
चन्द्रशेखरकृत सुर्जनचरित बीस सर्गों में निबद्ध एक ऐतिहासिक एवं चरित.महाकाव्य है । यह राजस्थान के हाडावंशीय बूँदी.नरेश राव सुर्जन ;सोलहवीं शताब्दीद्ध पर लिखा गया है । इस महाकाव्य में राव सुर्जन एवं चौहानवंश में उत्पन्न 53 राजाओं के चरित्रों की युद्धवीरताए दानवीरता और दयावीरता के साथ.साथ प्रसंगानुरूप भारतीय संस्कृति के उच्चतम आध्यात्मिक रहस्योंए भक्तिए मानवीय गुणोंए तत्कालीन शासन.पद्धतिए प्रजापालनए सामाजिक.सद्भावए इतिहासए कलाए दर्शनए संस्कृतिए चरित आदि तत्वों का प्रतिपादन हुआ है । संभवतः काव्य की कोमलकान्त.पदावलीयुक्त कान्तासम्मित उपदेशशैली समीक्ष्य महाकाव्य की लोकप्रसिद्धि के आधारों में प्रमुख रही हो ।
काव्य में प्रयुक्त वर्णए पदए वाक्यए प्रकरण एवं प्रबन्ध.विन्यासीय स्तरों के विश्लेषण के आधार पर भी काव्यगत शब्दार्थ.वैशिष्ट्य और उनकी परस्पर सहवर्तित्व.रमणीयता ;साहित्यद्ध को समझना चाहिए । कवि चन्द्रशेखर विरचित सुर्जनचरित महाकाव्य में उत्सुकतावश सामान्य दृष्टि डालने पर पदार्थगत रमणीयता की प्रतीति होने से वक्रोक्ति.सिद्धांत की दृष्टि से उक्त महाकाव्य की समीक्षा किया जाना अपेक्षित प्रतीत होता है। अतः यहाँ पदपूर्वार्धवक्रतावैचित्र्य का अनुप्रयोगात्मक अध्ययन किया जा रहा है ।