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International Journal of Sanskrit Research
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International Journal of Sanskrit Research

2025, Vol. 11, Issue 2, Part A

मनुस्मृति और भारतीय ज्ञान परम्परा में विधि न्याय का आत्मतत्त्व

पवन कुमार शर्मा

भारतीय ज्ञान परंपरा में विधि न्याय की अविरत धारा प्रवाहित रही है जो वैदिक साहित्य में प्रकट रूप से दिखाई देने से पहले भी विद्यमान थी किंतु यह धारा स्मृति साहित्य में अपने विराट स्वरूप में हमें दिखाई देती है। इसमें मनुस्मृति का स्थान विशिष्ट है जिसमें संपूर्ण ग्रंथ ही इस अवधारणा में प्रेरित होकर मार्गदर्शन करता है। इसमें कर्तव्य अकर्तव्य, धर्म अधर्म, दंड, साक्ष्य प्रायश्चित इत्यादि विषयों में विधि निषेध का विशद विवेचन है जो कि भारतीय सनातन विधि एवं न्याय की परंपरा में अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें अनेक स्थान ऐसे हैं जो की आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भी अनुकरणीय एवं पालनीय हैं। क्योंकि यह विधि न्याय की मौलिक अवधारणा का आत्म तत्व का ग्रहण करते है। पहले स्मृतिकार विधि निषेध का विस्तार में वर्णन कर बाद में उनके उल्लंघन पर दंड विधान का बहुत सूक्ष्म वर्णन करते हैं। स्मृतिकार धर्मस्वरूप, वर्णाश्रमधर्म, व्यवहार वर्णन, संस्कार, राजधर्म, दण्ड, प्रार्याश्चत के बारे में विविध स्थान पर अनेक सूत्र प्रदान कर न्याय का स्वरूप स्पष्ट करते हैं जो कि भारतीय समाज के साथ वैश्विक समाज के लिए भी आधुनिक तथा परंपरागत विषयों में हितकर सिद्ध होती है अतः मनुस्मृति की विधि न्याय विषयक अवधारणा सर्वदा सर्वजनपालनीय है।
Pages : 34-36 | 120 Views | 55 Downloads


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How to cite this article:
पवन कुमार शर्मा. मनुस्मृति और भारतीय ज्ञान परम्परा में विधि न्याय का आत्मतत्त्व. Int J Sanskrit Res 2025;11(2):34-36. DOI: 10.22271/23947519.2025.v11.i2a.2585

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