नाचिकेतोपाख्यान के महाभारतीय सन्दर्भ : एक संक्षिप्त विश्लेषण
विजय सिंह सैनी
नाचिकेतोपाख्यान भारतीय वाङ्मय में अतिप्राचीनकाल से प्रचलित रहा है। ऋग्वेद के 10/135वे सूक्त में इस आख्यान के सर्वप्रथम दर्शन होते हैं। एतद्पश्चात यजुर्वेद के तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी यह आख्यान किञ्चित् परिवर्तित स्वरूप में उपलब्ध होता है जिस पर विद्वान भाष्यकार आचार्य सायण ने भी सूक्ष्म विमर्श प्रस्तुत किया है। एतद् अतिरिक्त यजुर्वेदीय कठोपनिषद् में यम और नचिकेता के गूढ़ दार्शनिक आत्म-विषयक संवाद के रूप में भी यह आख्यान विस्तृत रूप में प्राप्त होता है। कालान्तर में महर्षि वेदव्यास द्वारा विरचित महाभारत के अनुशासन पर्व के 71वे अध्याय में भी इस विषय को प्रमुखतया से रेखाङ्कित किया गया है। महाभारतोक्त नाचिकेतोपाख्यान मनुष्यों के निकृष्ट कार्यों के परिणाम स्वरूप प्राप्त होने वाले भयानक नरकों के चित्रण एवं भारतीय संस्कृति में गोदान के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए सत्कर्मों में प्रवृत्त रहने वाले के उपदेश के रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होता है।
विजय सिंह सैनी. नाचिकेतोपाख्यान के महाभारतीय सन्दर्भ : एक संक्षिप्त विश्लेषण. Int J Sanskrit Res 2024;10(5):120-125. DOI: 10.22271/23947519.2024.v10.i5c.2489