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International Journal of Sanskrit Research
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International Journal of Sanskrit Research

2024, Vol. 10, Issue 5, Part B

श्री आचार्य विजय में निर्दिष्ट भक्ति एवं प्रपति का स्वरूप

भारवाडिया हर्षा सीदाभाई

प्रपति, एक आध्यात्मिक स्थिति है, जिसमें भक्त अपनी संपूर्णता से भगवान के प्रति समर्पित हो जाता है। रामानंदाचार्य जी ने श्रीआचार्यविजय के द्वात्रिंशतम परिच्छेद में इसे स्पष्ट किया है, जहाँ भक्त का भाव होता है कि वह केवल भगवान का कृपा पात्र है। भक्ति की यह चरम अवस्था नितिनियमों से मुक्त है और इसमें केवल प्रभुमय होना और उनकी कृपा प्राप्त करना आवश्यक है। इस लेख में, प्रंचंजप के छह प्रकारों का वर्णन किया गया है, जिनमें आनुकूल्य, प्रतिकूलत्व परित्याग, रक्षयिष्यति इति विश्वास, रक्षकत्व वरण, सफलमिदं भगवत एव न ममेति समर्पण, और स्वात्मनि दीनत्व भावना शामिल हैं। इन तत्वों के माध्यम से, भक्त का समर्पण और विश्वास स्पष्ट होता है, जो उसे भगवान के निकट ले जाता है।
Pages : 89-90 | 170 Views | 64 Downloads


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How to cite this article:
भारवाडिया हर्षा सीदाभाई. श्री आचार्य विजय में निर्दिष्ट भक्ति एवं प्रपति का स्वरूप. Int J Sanskrit Res 2024;10(5):89-90.

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