संस्कृत साहित्य परम्परा में सौन्दर्यबोध: एक परिशीलन
डाॅ0 बीना रानी
देववाणी संस्कृत सृष्टि के उत्पत्तिकाल से ही भारतीय संस्कृति को अपनी दिव्य, निर्मल एवं अलौकिक ज्ञानगंगा से निरन्तर पुष्पित-पल्लवित करती आई है। संस्कृत भाषा ने ’विश्वबन्धुत्व’ एव ’वसुधैवकुटुम्बकम्’ के आदर्श को स्थापित कर अपनी अमूल्य ज्ञानपरम्परा के प्रतिनिधि ग्रन्थरत्नों के प्रकाश से समस्त विश्व के कल्याणार्थ धर्म, दर्शन, अध्यात्म, नैतिकता की एक नई अलख जगाकर मानव की वैयक्तिक, सामाजिक एवं वैश्विक उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया है। यह भाषा प्राचीन एवं अर्वाचीन भाषाओं की जननी होने के साथ ही साथ सदैव से सभी भाषाओं को सूत्रबद्ध करने वाली एक दृढ़ कड़ी रही है। वैदिक संस्कृति से लेकर लौकिक संस्कृति पर्यन्त संस्कृत वाङ्मय के प्रत्येक ग्रन्थ में एक विशिष्ट सौन्दर्य समन्वित है जो हमें कभी वेदों की स्तुतिपरक ऋचाओं में, कभी उपनिषदों के गूढ़ रहस्यात्मक तत्त्वों में, कभी स्मृतिग्रन्थों में प्रतिबिम्बित सामाजिक वर्णन में, कभी रामायण-महाभारत सदृश महाकाव्यों के लोक कल्याणकारी उपदेशों में और कभी कालिदास-माघ-भारवि-भास आदि अनेक कवियों के काव्य वैशिष्ट्य में दृष्टिगोचर होता है। वैदिक ऋषि ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्‘ की कल्याणकारी अवधारणा का समन्वय सौन्दर्य में मानते हुए सौन्दर्य को परमसत्ता के गुणों के रूप में देखते हैं। यह सौन्दर्य ही सौन्दर्य चेतना के नाम से अभिहित किया जाता है। सौन्दर्य चेतना ’सौन्दर्यबोध’ की वह भावनात्मक अवस्था है जो मनुष्य को सदैव मनोरमता के प्रति आकर्षित करती है। ‘सौन्दर्यबोध’ में प्रयुक्त ‘सौन्दर्य’ पद भारतीय वाङ्मय के रुचिर, शोभन, कान्त, साधु, मनोज्ञ, मंजुल, ललित, काम्य, कमनीय आदि विभिन्न वाचक शब्दों को द्योतित करता है। सौन्दर्य के मूल में प्रेम की भावना एवं कामना प्रत्यक्ष रहती है। पाश्चात्य सौन्दर्यबोध परम्परा सौन्दर्य की उपयोगितावादी, सुखवादी एवं वस्तुवादी धारणाओं पर विशेष बल देती है जबकि भारतीय परम्परा में सौन्दर्य के रूप में मानवीय रूप-आकार को महत्त्व न देकर सौन्दर्य प्रभाव को ध्यान में रखकर प्रकृति सौन्दर्य को ही आदर्श माना गया है।