समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो देश है उसका नाम भारत है और उसकी प्रजा भारती कहलाती है। इस सम्पूर्ण भारतवर्ष में समानरुप से निहित भाषा संस्कृत है भारत की सभी भाषाओं के साथ संस्कृत का मातृवत् सम्बन्ध है भारतीय प्राचीन लिपियों व वर्तमान प्रयोज्य अधिकांश लिपियों में संस्कृत का लेखन कार्य प्राप्त होता है और वर्तमान में लेखन पठन आदि कार्य हो रहे हैं यही केवल वह शक्ति है जो भारतवर्ष के एकात्मक स्वरुप की आधार स्तम्भ है संस्कृत में एक वस्तु, व्यक्ति, स्थान के बोध के लिए पदों का आधिक्य है इस कारण एक ही वस्तु की अभिव्यक्ति के लिए क्षेत्र विशेष में भिन्न- भिन्न पदों का प्रयोग होता है जैसे- अरण्यम् – “ऋच्छन्ति गच्छन्ति यत्र अथवा अर्यते गम्यते यत्र इति अरण्यम्” 2। कहीं वनम् “वन्यते याच्यते वृष्टिप्रदानाय”3 शब्द का प्रयोग होता है इसी तरह वेष्टिः शब्द का प्रयोग दक्षिण में धोती के लिए होता है उत्तर में अधोवस्त्रम्, अन्तरीयम्, कटिवस्त्रम् इत्यादि का प्रयोग होता है इसलिये निर्वचन सिद्धान्त के द्वारा पदसाधुत्व व सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रयोग भेद होने पर भी एकत्व है ऐसी सिद्धि ही नहीं होगी अपितु सभी भारतीयों में संस्कृत भाषा के साथ सभी भारतीय भाषाओं को जानने व उनके शुद्धरुप का उपयोग करने के प्रति जिज्ञासा बढेगी। निर्वचन सिद्धान्त का आदिस्रोत वेद वेदाङ्ग हैं । आधुनिक काल के भाष्यकार महर्षि दयानन्द सरस्वती ने निरुक्त के निर्वचन सिद्धान्त को आधार मानकर वेदभाष्य किया है तथा उणादिकोष में उन्होंने लौकिक पदों के निर्वचन करने पर भी बल दिया है एतदर्थ उनकी दृष्टि का अध्ययन भी इस शोधपत्र में किया गया है।