बदलते परिवेश में कर्मयोग की महत्ता एवम् उपादेयताः एक विमर्श
डाॅ. बीना रानी
मानव मन की ज्ञान, कर्म एवं भाव; इन तीन प्रवृत्तियों में कर्म का अपना विशेष महत्त्व है। कर्मवाद की मूल भावना के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है, इसी कारण अपने प्रत्येक कर्मफल के लिए वह स्वयं उत्तरदायी होता है। कर्मयोग शब्द ’कर्म’ एवं ’योग’ से निर्मित होता हुआ एक योगी पुरुष की भाँति संन्यास की भावना से युक्त होकर कर्म करने हेतु पे्ररित करता है। यह मनुष्य को पुरुषार्थोन्मुख एवं आलस्यरहित होकर अपने समस्त लौकिक कत्र्तव्यों का निर्वहन करना सिखाता है। कर्मयोग कर्मार्थ कर्म की प्रेरणा देते हुए कर्मयोगी को कर्मफल का त्याग करके निरासक्त भाव से कर्म कर कर्मजनित दुःखों से सर्वथा मुक्ति हेतु दिशा प्रशस्त करता है। आधुनिक विश्व की अधिकांश समस्याएँ कर्मयोग का रहस्य जानकर उचित कर्मों में प्रवृत्त होने पर ही सुलझ सकती है। गीता के कर्मयोग सम्बन्धी रहस्यज्ञान के उपरान्त ही मनुष्य के दैहिक, दैविक व आध्यात्मिक कष्टों का निवारण हो सकता हैै। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण ने मानव को अपनी समस्त शक्तियाँ केन्द्रीभूत कर आध्यात्मिक ऊर्जा उत्पन्न करके कर्मफल प्राप्ति हेतु कुशलतापूर्वक संयोजित होने की प्रेरणा दी है। गीता के आध्यात्मिक मार्ग का अनुसरण करके ही वर्तमान भौतिकतावादी विश्व में मानसिक संतोष एवं सुखप्राप्ति सम्भव है।
डाॅ. बीना रानी. बदलते परिवेश में कर्मयोग की महत्ता एवम् उपादेयताः एक विमर्श. Int J Sanskrit Res 2024;10(2):147-150. DOI: 10.22271/23947519.2024.v10.i2c.2345