आचार्य धनञ्जय के नाट्य भेदक तत्व की दृष्टि से उत्तररामचरितम् नाटक का अनुशीलन
आसुतोष कुशवाहा
भारतीय संस्कृत वाड्मय का स्वरूप दो रूपों में मिलता है-वैदिक साहित्य और लौकिक संस्कृत साहित्य।वैादिक साहित्य के अन्तर्गत वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद आादि । वही लैकिक संस्कृत साहित्य को काव्यशास्त्रीय दृष्टि से दो भागो में विभक्त किया गया है- श्रव्य काव्य, दृश्य काव्य।श्रव्य काव्य (गद्य पद्य, चम्पू) एवं दृश्य काव्य में दस नाट्य या रूपक तथा उपरूपक का विधान किया गया है। श्रव्य काव्य की अपेक्षा दृश्य काव्य (नाटक) में रस की प्रधानता होती है संस्कृत नाट्य में नाटक को श्रेष्ठ माना गया है। इसमें गद्य-पद्य दोनो का मिश्रण तो रहता है। अपितु सुनने के अतिरिक्त देखा भी जाता है। श्रव्य की अपेक्षा दृश्य का अधिक प्रभाव प्रेक्षक या सामाजिक पर पड़ता है।इसीलिए काव्येषु नाटकं रम्यम् कहकर नाटक को काव्य का सर्वोत्तम अंग स्वीकार किया गया है। प्रस्तुत शोध पत्र मंे कवि भवभूति कृत उत्तररामचरितम् नाटक का अनुशीलन आचार्य धनंजय के ग्रन्थ दशरूपक में प्राप्त नाट्य भेदक तीन तत्व -वस्तु, नेता, और रस को लेकर किया गया है।