शब्दोच्चारण करने पर नियमित रूप से अर्थप्रतीति होती हैए वस्तुतः अर्थाभिव्यक्ति ही शब्द प्रयोग का मूल कारण है । वक्ता शब्दों के माध्यम से ही अपने भावों का संप्रेषण करता है । एतदर्थ ही आचार्य दण्डी ने शब्द को ज्योति की संज्ञा दी है। इस शब्द रूप ज्योति से ही संपूर्ण जगत् का कार्यव्यापार चलता है
इदमन्धंतमः कृत्स्नं जायेत् भुवनत्रयम्।
यदि शब्दाह्वयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते ।।
शब्द से बोध्य इस अर्थ का स्वरूप क्या हैघ् अर्थात् क्या शब्द जातिरूप अर्थ की प्रतीति करवाते हैं या व्यक्तिरूप अथवा शब्द से दोनों ही अर्थों का अभिधान किया जाता है। इस विषय पर प्राचीन काल से ही विमर्श होता रहा हैए प्रस्तुत पत्र में वैयाकरणों के मत का विवेचन किया गया है ।