गंगापुत्रावदानम् के प्रथम तीन सर्गों में अलङ्कार योजना
प्रदीप कुशवाहा
अलङ्कार का शाब्दिक अर्थ सौन्दर्य, उपकरण अर्थात् आभूषण है। काव्यशास्त्र में ‘अलङ्कार’ एक अति महत्वपूर्ण शब्द है। ‘अलम्’ पदपूर्वक ‘कृ’ धातु के प्रयोग से “अलंक्रियते अनेन” अथवा “अलंकरोति” व्युत्पत्ति करने पर करण या भाव अर्थ में ‘घञ्’ प्रत्यय करने पर ‘अलङ्कार’ पद निष्पन्न होता है।
अलङ्कार की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार है-
(१) अलङ्करोति अलंकारः - अर्थात् जो अलंकृत करता है, वही अलङ्कार हैं।
(२) अलंक्रियते अनेनेत्यलङ्कारः - अर्थात् वह तत्व जो काव्य को सुन्दर बनाने का साधन हो, वे ही अलङ्कार हैं।
जिस पदार्थ या तत्वों के द्वारा कोई वस्तु सुशोभित की जाए, उसके सौन्दर्य में वृद्धि हो, वह पदार्थ या तत्व ‘अलङ्कार’ कहलाता है। ये अलङ्कार जिस वस्तु को पहनाए जाते हैं, उसको अलंकृत करते हैं। जिस प्रकार लोक में आभूषण नारी के सौन्दर्य को बढ़ाते हैं, उसी प्रकार अलङ्कार शब्द और अर्थ के माध्यम से काव्य में विचित्रता का आदान करके काव्य के सौन्दर्य में वृद्धि करते हैं इसलिए अलङ्कार को सौन्दर्य का पर्यायवाची कहा गया है।
आचार्य मम्मट ने अलङ्कार की परिभाषा करते हुए स्पष्ट किया है कि -
उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित्।
हारादिवदलङ्कारास्तेऽनुपासोपमादयः।।
“अर्थात् जिस प्रकार हार आदि अलङ्कार व्यक्ति के शरीर के कण्ठ आदि अंगों में धारण करने के बाद, उसकी शोभा में वृद्धि करते हुए, सुन्दरी के सौन्दर्य में भी वृद्धि करते हैं, ठीक उसी प्रकार जो ‘धर्म’ काव्य की आत्मारुप ‘रस’ के अंगरूप में विद्यमान होकर अनुप्रास और उपमा आदि रुप में रस की व्यञ्जना के माध्यम से शब्द एवं अर्थ की शोभा में वृद्धि करते हुए, अंगीरस के भी परम्परा से, न कि साक्षात् रूप से उत्कर्षाधायक होते हैं।” इस शोध प्रपत्र में गंगापुत्रावदानम् महाकाव्य के प्रथम तीन सर्गों में अलङ्कार की दृष्टि से विवेचन किया जाएगा।