आचार्य भामह के पूर्वकालीन विद्वानों द्वारा भी अलङ्कार विषय पर विवेचन किया जाना सिद्ध होता है किन्तु भामह के पूर्ववर्ती आचार्यों के ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। ऐसी परिस्थिति में उपलब्ध ग्रन्थों के आधार पर भामह ही अलङ्कार सम्प्रदाय के प्रधान प्रतिनिधि के रूप में माने जा सकते हैं। भामह का मानना है कि काव्य का सबसे प्रमुख सौन्दर्याधायक तत्त्व अलङ्कार है। जिस प्रकार कामिनी का मुख सुन्दर होते हुए भी विना भूषण के शोभायमान नहीं होता, उसी प्रकार अलङ्कारों के विना काव्य की शोभा नहीं होती। शब्द और अर्थ की वक्रता से युक्त उक्ति को भामह ने अलङ्कार बताया है। इन्होंने अतिशयोक्ति अलङ्कार के प्रकरण में ‘वक्रोक्ति’ का प्रयोग अतिशयोक्ति के लिए किया है। अतिशयोक्ति का पर्याय ही वक्रोक्ति है।
आचार्य दण्डी ने भी कहा है कि सब अलङ्कारों में सामान्यतः अतिशयोक्ति होती ही है। इस प्रकार अतिशयोक्ति सब अलङ्कारों का बीज रूप है। निष्कर्ष यह है कि उक्ति वैचित्र्य को ही काव्य में अलङ्कार कहते हैं। उक्ति वैचित्र्य भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है, उस विभिन्नता के आधार पर ही अलङ्कारों के विभिन्न नाम निर्दिष्ट किए गए हैं। इस शोध प्रपत्र में अलङ्कार-सिद्धान्त की दृष्टि से राजेन्द्रकर्णपूर का विवेचन किया जाएगा।