अनादिकाल से लोक में उसी व्यवहार को सद्-व्यवहार माना जाता है जो औचित्य पर अवलम्बित रहता है। लोक-व्यवहार में यदि औचित्य का आधार न हो तो यह लोक लुप्त हो सकता है। अतः लोकव्यवहार में महत्त्वपूर्ण बात यह होती है कि किस व्यक्ति के साथ किस तरह का आचरण उपयुक्त होगा।
सौन्दर्य-भावना का आधार इस दृश्य जगत् में औचित्यतत्त्व ही है। औचित्य का अभाव होने से कोई वस्तु असुन्दर मानी जाती है। सांसारिक पदार्थों के अपने-अपने विशिष्ट और निर्दिष्ट स्थान होते हैं जो भङ्ग होने पर पदार्थ अपने महत्त्व खो देते हैं। मानवों के दन्त, नख आदि स्थानभङ्ग हो जाने पर शोभाहीन हो जाती है। शरीर को अलङ्कृत करने के लिए कटक-कुण्डल आदि अलङ्कार तभी तक अलङ्कार कहे जा सकते हैं जब तक वे उचित स्थान पर विन्यास रहेगें। अनुचित स्थान में धारण किया गया अलङ्कार स्वयं को ही असुन्दर नहीं अपितु धारण करने वाले व्यक्ति को भी मूर्ख सिद्ध कर देता है।
सभी काव्यों का मुख्य लक्ष्य दर्शक तथा श्रोताओं के हृदयों में रस का उन्मीलन करना ही रहा है और इस लक्ष्य की सिद्धि में औचित्य का अति आवश्यकता है। अनुचित वेश-भूषा, अनुचित कथोपकथन, अनुचित मञ्च-रचना जिस तरह दृश्य-काव्यों के अभिनय देखने वालों के हृदय में रस का उन्मीलन नहीं कर पाता उसी तरह अनुचित पद-प्रयोग आदि श्रव्य-काव्य के श्रोताओं को आनन्दित नहीं कर पाता।A काव्यशास्त्र के सभी आचार्यों ने अपने-अपने तरीके से रस, अलङ्कार आदि के उचित प्रयोग का विवेचन करते हुए ‘औचित्य’ का संकेत दिया है तथा शुद्ध रूप से औचित्य को काव्य का तत्त्व मानकर आचार्य क्षेमेन्द्र ने ‘औचित्यविचारचर्चा’ नामक ग्रन्थ का प्रतिपादन किया है। इस शोध प्रपत्र में औचित्य की दृष्टि से राजेन्द्रकर्णपूर का विवेचन किया जाएगा।