संस्कृत व्याकरण में पाणिनि परम्परा के अन्तर्गत तीन प्रमुख धाराओं को देखा जाता है । जैसे –
1. सूत्रात्मक ।
2. प्रक्रियात्मक ।
3. दार्शनिक ।
सूत्र का प्रारम्भ पाणिनीय अष्टाध्यायी से, प्रक्रिया का प्रारम्भ रामचन्द्र की प्रक्रियाकौमुदी, एवं दार्शनिक धारा के प्रारम्भ संग्रह रचनाकार व्यडि से हुआ था । प्रक्रिया एवं दार्शनिक ग्रन्थों में सुनिर्दिष्ट, सुसज्जित एवं समृद्ध विचार रखने के लिए यथाक्रम से भट्टोजिदीक्षित की सिद्धान्तकौमुदी तथा पदवाक्यप्रमाणज्ञ भर्त्तृहरि का वाक्यपदीय विद्वत् समाज में प्रसिद्ध है । आलोचित विषय में प्रमाण चिन्तन का मुख्य आधार भी वाक्यपदीय ग्रन्थ ही है । ब्रह्मकाण्ड-वाक्यकाण्ड-पदकाण्ड नामक तीन काण्डों में विभक्त वाक्यपदीय के प्रथमकाण्ड में अर्थात् ब्रह्मकाण्ड में सभी प्रमाणों के विषय मे आलोचना किया गया हैं । जिस तरह चार्वाक एक, वैशेषिक दो, सांख्य-योग तीन,न्याय चार प्रमाणों को स्वीकार करता है तद्वत् व्याकरणदर्शन मे पांच प्रमाण मान्य है । वे पांच प्रमाण है – प्रत्यक्ष-अनुमान-आगम-अदृष्ट- अभ्यास । यहां अदृष्ट और अभ्यास नामक दो अतिरिक्त प्रमाण पाठकों की दृष्टि को आकर्षित करते हैं । इस शोध पत्र में इन सभी प्रमाणों पर विशेष रूप से चिन्तन किया जायगा ।