संस्कृत व्याकरण सम्प्रदाय पंचांगी उपलब्ध होते हैं। पंचांगों में व्याकरण के साथ-साथ धातुपाठ, गणपाठ, उणादिकोश एवं लिंगानुशासन भी उपलब्ध होते हैं। गणपाठ शब्द में गणशब्द का यौगिक अर्थग्रहण न करके योगरूढ अर्थ करना चाहिए जिससे गणपाठ शब्द से प्रातिपदिकपाठ अर्थ उपस्थित होता है। गणपाठ के माध्यम से किसी भी व्याकरण का संक्षिप्तत्व बना रहता है। व्याकरण का कोई भी सूत्र अनेक शब्दसमूहों से प्रत्ययविधान स्वरविधान एवं साधुत्व-असाधुत्वादि का निर्धारण करने में गणपाठ के माध्यम से ही समर्थ हो पाता है। आचार्य पाणिनि द्वारा चैथी शताब्दी ईसापूर्व में निर्धारित गणपाठ का अनुकरण अर्वाचीन कालीन सभी व्याकरण सम्प्रदायों में हुआ है। संक्षिप्तसार नामक व्याकरण सम्प्रदाय मंे भी पाणिनीय गणपाठ का अनुकरण देखा जा सकता है। यह व्याकरण संप्रदाय जौमर नाम से भी जाना जाता है। इस व्याकरण सम्प्रदाय के गणपाठ की व्याख्या आचार्य नारायण न्यायपंचानन द्वारा गणप्रकाश नामक ग्रन्थ में की गई है। गणप्रकाश में कुल 127 गण प्राप्त होते हैं जोकि कृत् एवं तद्धित सूत्रोक्त गणशब्दों से सम्बन्धित है। पाणिनीय गणपाठ की तुलना में शब्दों की संख्या के विषय में न्यूनाधिकता अवश्य है। कुछ गणों का आदि शब्द परिवर्तित हो गया है अन्य सभी शब्द गणविशेष के ही प्राप्त होते हैं। प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से गणप्रकाश की उपलब्धता, विषयवस्तु एवं अन्य व्याख्या ग्रन्थों से पृथक् वैशिष्ट्य आदि ज्ञापित करने का प्रयास किया जाएगा।