इस शोधपत्र में संस्कृतव्याकरणशास्त्र की परम्परा जो वेदों से शुरू हो वर्तमानकाल पर्यन्त किन – किन रूपों में, कैसे-कैसे विस्तृत हुई है? वर्तमान में क्या चल रहा है और भविष्य में क्या संभावनाएं संभावित नजर आती हैं? इन बिन्दुओं पर विचार-विमर्श किया गया है। वेद-पुरूष के मुख के रूप में प्रसिद्ध व्याकरण ही वो वेदांग हैं जो वेदमन्त्रों का अर्थ स्पष्ट करता है और मंत्रों को प्रयोग योग्य बनाता है। व्याकरण का ज्ञान इसके प्रथम प्रवक्ता ब्रह्मा से शुरू होकर बृहस्पति, इन्द्र, भारद्वाज, ऋषियों तक पहुँचा । इसके पश्चात् अलग –अलग ऋषियों ने अलग-अलग प्रमुख आठ व्याकरण-सम्प्रदायों को जन्म दिया जिनका आज नाममात्र ही शेष रह गया है। पाणिनीय व्याकरण के विकसित होने पर इसकी सार्गर्भित, संक्षिप्त व वैज्ञानिक पद्धति के कारण ये सभी सम्प्रदाय भुला दिये गये । पाणिनीय व्याकरण की विकास-परम्परा को आठ अवधियों {सूत्रकाल, वार्तिककाल, भाष्यकाल, दर्शनकाल, वृत्तिकाल, प्रक्रियाकाल, सिद्धान्तकाल और वर्तमानकाल (इसके दो भाग – अनुवाद/टीका काल तथा तकनीकि काल)} में बांट सकते हैं। 700ई.पूर्व के लगभग यास्क ने निरूक्त की रचना की जो भाषावैज्ञानिक-अध्ययन के क्षेत्र में प्रथमग्रन्थ माना जा सकता है। 500ई.पूर्व में आचार्य पाणिनि ने संस्कृतभाषा का पूर्ण, संक्षिप्त व वैज्ञानिक-ढंग से व्याकरणग्रन्थ अष्टाध्यायी लिखा जिसने पिछले 2500वर्षों से संस्कृत भाषा कोई विकार नहीं आने दिया है । पाणिनि से पूर्व भी आठ व्याकरण-सम्प्रदाय प्रचलित थे परन्तु सारगर्भित व वैज्ञानिक होने के कारण पाणिनीय संप्रदाय पिछले दो हजार वर्षों से अस्तित्व में है और उनके द्वारा रचित अष्टाध्यायी का अनुशीलन होता आया है। यह अवधि सूत्रकाल थी इसके पश्चात् वार्तिककाल में पाणिनीय अष्टाध्यायी को परिष्कृत व इसकी व्याख्या करने के लिए 350ईसा पूर्व में कात्यायन ने वार्तिक लिखे व कुछ सूत्रों को परिष्कृत किया । आगे चलकर इन वार्तिकों को शामिल करते हुए महर्षि-पतञ्जलि ने चूर्णकशैली (dialogue) में 100ई.पू. के लगभग महाभाष्य ग्रन्थ की रचना कर पाणिनीय सूत्रों की समीक्षा, टिप्पणी, विवेचना व आलोचना की है । भाषावैज्ञानिक दृष्टि से महाभाष्य में शिक्षा (phonology), व्याकरण (grammar and morphology) और निरुक्त (etymology) तीनों की चर्चा हुई है। पाणिनि से लेकर महाभाष्य तक के काल को त्रिमुनि-काल के नाम से जाना जाता है। इसके पश्चात् 5वीं शताब्दी से लेकर 15वीं शताब्दी तक इन त्रिमुनियों की व्याख्याएं हुई । 5वीं शताब्दी में व्याकरणशास्त्र के सिद्धान्तों की दार्शनिक-दृष्टि से प्रस्तुत कर दार्शनिकविचारधारा को जन्म दिया जिसका भट्टोजिदीक्षित, कोण्डभट्ट, नागेश, आदि ने अनुशीलन कर अतिसूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत किया। ईसा की 7वीं शताब्दी के आते आते व्याकरण ग्रन्थों की व्याख्या कर इन्हें उदाहरण आदि से समझाने के लिए वृत्ति ग्रन्थ लिखे गये । इस वृत्तिकाल में जयादित्य व वामन द्वारा काशिका-वृत्ति लिखी गयी जो बहुत प्रसिद्ध हुई जिसका आज भी अनुशीलन हो रहा है। वृत्तिकाल के पश्चात् नैयायिक समालोचना के दौर में 11वीं सदी में विषय-विभाग के आधार पर अष्टाध्यायी सूत्रों की व्याख्या करने हेतु प्रकरण ग्रन्थों की रचना प्रारम्भ हुई । इस प्रथा में रूपावतार, रूपमाला, प्रक्रियाकौमुदी, प्रक्रियासर्वस्व, सार-सिद्धान्तकौमुदी, लघुसिद्धान्तकौमुदी, मध्यसिद्धान्तकौमदी, वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी इत्यादि ग्रन्थों की रचना हुई । वै.सिद्धान्तकौमुदी में अष्टाध्यायी के सभी सूत्रों को प्रक्रियाक्रम से विवेचित कर उनकी वृत्ति देते हुए शब्दरूपों की सिद्धि में उनका विनियोग प्रदर्शित किया गया जिसके कारण यह इतनी लोकप्रिय हुई कि अष्टाध्यायीक्रम की शास्त्रपरम्परा ही लुप्त सी हो गयी। सिद्धान्तकौमुदी के प्रचलन ने बोपदेव के मुग्धबोध, कातन्त्र, चान्द्र-व्याकरण आदि को भी बाहर कर दिया । अब प्रमुखतः पाणिनीय व्याकरण ही प्रचलित है। परवर्ती काल में सिद्धान्तकौमुदी पर अनेक व्याख्याएं हुई जिनमें – प्रौढ़मनोरमा, बालमनोरमा, लघुसिद्धान्तकौमुदी, शब्देन्दुशेखर आदि प्रमुख हैं। 16वीं -17वीं शताब्दियों के दौरान नव्यन्याय की प्रतिपादन-शैली में गम्भीर और सूक्ष्म विवेचन प्रारम्भ हुआ जिसे सिद्धान्तकाल कह सकते हैं। इसमें कौण्डभट्ट, मञ्जूषाकार नागेश जैसे विद्वान् प्रसिद्ध रहे हैं।इसके बाद 18वीं से 20वीं शताब्दियों के मध्य व्याकरणग्रन्थों की टीकाएं हिन्दी आदि बहुसंख्य लोगों द्वारा प्रयुक्त भाषाओं में होने लगी। अतः इसकाल को अनुवादकाल कह सकते हैं। 21वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही संस्कृतव्याकरण ग्रन्थों की टीकाएं अंग्रेजी में तेजी से लिखी जाने लगी। तथा पिछले कुछ वर्षों से (21वीं शताब्दी के द्वितीय दशक से) व्याकरण के सिद्धान्तों के आधार पर तकनीकि निर्माण हो रहा है। इस दिशा में JNU द्वारा अनेक सॉफ्टवेयर्स का निर्माण किया गया है जिनमें – सुबन्त-निर्मापक, सुबन्त-विश्लेषक, तिङन्त-निर्मापक, सन्धि-प्रक्रिया आदि प्रमुख हैं। 2008 में डॉ.शिवमूर्ति स्वामी ने गणकाष्टाध्यायी सॉफ्टवेयर का निर्माण किया जिसमें रोमन लिपि के साथ ही देवनागरी में सूत्रों के पदपाठ, अनुवृत्ति, वृत्ति, गणपाठ, रूपसिद्धि, फ्रेंच व अंग्रेजी अनुवाद आदि उपलब्ध होते हैं। 2015ई. में नीलेश वोडस द्वारा ashtadhyayi.com वेबसाइट का निर्माण किया गया जिस पर संस्कृत-व्याकरण से जुडे लगभग सभी महत्त्वपूर्ण सोर्सेज, व्याख्याएं, रूपसिद्धि, कोशग्रन्थादि संस्कृत भाषा में उपलब्ध हैं। 21वीं सदी के द्वितीय दशक में मोबाइल एप्स का प्रचलन तेजी से बढा तो प्रो.मदनमोहन झा जैसे विद्वानों ने अनेको एप्स बनाये जिनमें – वाचस्पत्यम्, सिद्धान्तकौमुदी, शब्दरूपमाला, अमरकोश, पाणिनि-अष्टाध्यायी, धातुरूपमाला, शब्दकल्पद्रुम, क्रिदन्तमाला आदि प्रमुख मोबाइल एप हैं। गूगल इनपुट टूल व Sanskrit Writer जैसे टूल्स का विकास हुआ है जिनसे त्रुटिरहित संस्कृत लेखन में काफी मदद मिल रही है। कृत्रिम बुद्धिमता (AI = Artificial Intelligence) के इस दौर में स्वचालित मशीनों व रोबोट्स से संवाद के लिए NASA जैसी संस्थाएं भी संस्कृत को ही सर्वश्रेष्ठ भाषा के रूप में देख रहे हैं। इसप्रकार व्याकरणशास्त्र की परम्परा सूत्र निर्माण से प्रारम्भ हो वार्तिक, भाष्य, दर्शन, वृत्ति, प्रक्रिया, सिद्धान्त आदि से गुजरते हुए तकनीकि निर्माण तक चली आयी है और भविष्य में मानव व मशीनों के मध्य संवाद का माध्य बनेगी ।