मन की स्वस्थता व प्रसन्नता से मनुष्य नीरोग होता है। मन का प्रदूषण रोगों का कारण है। अतः मैत्रायणी उपनिषद मे कहा गया है कि मन ही मनुष्यों के बन्ध मोक्ष का कारण है 1 । ऋग्वेद और यजुर्वेद में कहा गया है कि पाप रोग व्याधियों का नाश करके मन शुद्ध करो। यजुर्वेद में भी प्रार्थना की गई है - ‘‘तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु । चरक महोदय का मत है कि मानस रोग प्रज्ञापराध से पैदा होते हैं। चरक महोदय ने प्रज्ञापराध की परिभाषा करते हुए कहा है कि धी, धृति, स्मृति के भ्रष्ट होने से ही मनुष्य अनुचित कार्य करता है। उससे उत्पन्न रोग प्रज्ञापराधजन्य रोग कहलाते है और इससे ही शारीरिक मानसिक रोग कुपित हो जाते हैं। 2 बुद्धि द्वारा उचित रुप से वस्तुओं की अज्ञानता तथा अनुचित कर्मों में प्रवृत्ति प्रज्ञापराध दोष कहा गया है।