धर्म शास्त्र एवं इन्द्रियों द्वारा प्राप्त किए जाने वाल ज्ञान की सामग्री जो हमारे सामने प्रकट होती है उसकी तार्किकता का ही प्राचीन नाम ’आन्वीक्षिका’ है। नैयायिक उस सब को सत्य मानता है जो तर्क की कसौटी पर ठीक उतरता है। न्याय दर्शन ईश्वर को अनेक प्रकार से सिद्ध करता है। न्याय सूत्र के के प्रणेता ’गौतम’ माने जाते हैं। न्याय शास्त्र को दो धाराओं में विभक्त किया गया है- प्रमेय प्रधान और प्रमाण प्रधान। जिन साधनों के द्वारा हमें ज्ञेय तत्वों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, उन साधनों को ही ’न्याय’ की संज्ञा दी गई है। न्याय दर्शन मानता है कि ईश्वर ने संसार को अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए नहीं अपितु प्राणियों के लिए बनाया है। ज्ञान के साधनों में प्रमाण का विशेष महत्व बताया गया है। न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष-अनुमान-उपमान एवं शब्द या आप्त प्रमाण ही न्याय दर्शन के प्रतिपादित विषय है। ’प्रमाणैरर्थ परीक्षणं न्यायः’ अर्थात् प्रमाणों द्वारा अर्थ का परीक्षण ही न्याय है। प्रमाणों के आधार पर किसी निर्णय पर पहुंचना न्याय कहलाता है। प्रत्यक्ष प्रमाण-अनुमान-उपमान एवं शब्द प्रमाण के विषय में न्याय दर्शन ज्ञान की प्राप्ति होती है। न्याय दर्शन ने सत्य मिथ्या-अनुमान का निश्चय किया है। प्रमाण शक्ति से ईश्वर प्राणीधान एवं तत्व का ज्ञान प्राप्त होता है। न्याय की दृष्टि में प्रमाण की महत्वता को दर्शया जा रहा हैै।