भाषा ही समस्त लोक व्यवहार का आधार होती है। सचेतन मनुष्यों द्वारा प्रयुक्त भाषा में निरन्तर विकास की प्रक्रिया चलती रहती है। शब्द भाषा की मूल इकाई होते हैं। शब्द का महत्व अर्थो द्वारा प्रस्फुटित होता है। अर्थ को शब्द की आत्मा माना गया है। शब्दों के अर्थविकास (अर्थविस्तार, अर्थादेश, अर्थसंकोच) में परिवेशगतभिन्नता, ज्ञानवैविध्य, भावात्मकता, साहचर्य, सादृश्यादि प्रमुख कारण होते हैं। एक ही शब्द भिन्न-2 धातुओं से सिद्ध होने पर भिन्नार्थ देने वाला होता है। किसी भी प्रकरण में शब्दार्थ का निर्धारण प्रयोग द्वारा ही हो सकता है। वक्ता की विवक्षा की भी महती भूमिका होती है। शब्दों के अर्थविकास में कालक्रम प्रमखतया कारण होता है। गणपाठगत शब्दों का प्रयोग प्राचीनकाल में प्रयुक्त अर्थो से भिन्न अर्थो में भी देखा जाता है। गणपाठगत शब्दों के अर्थ एवं प्रयोग का विस्तृत अध्ययन आचार्य पाणिनि द्वारा प्रयुक्त शब्दों के यथार्थ स्वरूप को उपस्थित करेगा। अतः इस शोधपत्र में गणपाठ में प्रयुक्त शब्दों के अर्थविकास पर व्यापक दृष्टिकोण उपस्थित करने का प्रयास किया गया है।