वेदों में राष्ट्र भावना आज भी प्रासंगिक है। वेदों में भारतीय राष्ट्र के विकास तथा विशिष्ट गुणों का अद्वितीय वर्णन है। वैदिक साहित्य के विभिन्न मंत्रों में “राष्ट्र” का वर्णन है। विश्व में “राष्ट्र” शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ऋग्वेद में किया गया है। आदर्श राष्ट्र जीवन की संकल्पना में व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन का बोध तथा आदर्श गुणों का वर्णन किया गया है। इसमें स्थान-स्थान पर राष्ट्र पुरुषों, राजाओं, सेनापतियों तथा विद्वानों को श्रेष्ठतम गुणों की वृद्धि तथा कर्तव्य का बोध कराया गया है। राजा हो अथवा प्रजा, सभी से राष्ट्र के प्रति कर्तव्य की पूर्ति का आह्वान है, न कि अधिकारों के अहंकारों की अभिव्यक्ति का। यदि वेदों के कुछ मंत्रों का ही अवलोकन करें तो वैदिक राष्ट्रवाद का सर्व कल्याणकारी बोध होता है। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के अंतिम 191 वें मंत्र में समूचे राष्ट्र हेतु संगठन मंत्र दिया गया है। इसमें कहा गया है-
संक्षेप में ऋग्वेद में एक ऐसे सशक्त राष्ट्र की कल्पना की गई है जहां राष्ट्र के सदस्य एक दूसरे के सहायक व सहयोगी हों
अथर्ववेद के एक पूरे अध्याय (12वां उपसर्ग) के प्रथम 63 मंत्र तो राष्ट्र भावना को पूर्णत: समर्पित हैं। इसे पृथ्वी सूक्त अथवा भूमि सूक्त भी कहा गया है। प्रत्येक मंत्र राष्ट्र की जाग्रत भावना का द्योतक है, यह राष्ट्र वन्दना का मधुरतम संगीत है, जो हृदयंगम करने वाला है।
हमारे प्राचीन ग्रन्थों में राष्ट्र के महत्व और राष्ट्रीय भावना का इतना स्पष्ट उपदेश होते हुए भी वर्तमान समय में हमारे देशवासियों में राष्ट्रीय भावना की बहुत कमी है जबकि भारतीय राष्ट्रवाद एक प्राचीन विश्वास प्रणाली है जिसमें मातृभूमि के प्रति गौरव तथा सेवा की भावना निहित है।युवा पीढ़ी को इस वास्तविकता से परिचित कराने के साथ-साथ व्यापक मानव कल्याण के लिए इसी मूल भावना के अनुरूप कार्य करने की भी अपेक्षा है।