ऋषि वैदिक संस्कृत भाषा का शब्द है। यह शब्द अपने आप में वैदिक परंपरा का भी ज्ञान देता है। ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति ऋषि गतौ धातु से मानी जाती है। इस व्युत्पत्ति का संकेत वायुपुराण, मत्स्यपुराण और ब्रह्माण्डपुराण में किया गया है। अपौरुषेय वेद ऋषियों के ही माध्यम से विश्व में आविर्भूत हुआ और ऋषियों ने वेद के वर्णमय विग्रह को अपने दिव्य श्रोत्र से श्रवण किया, इसीलिए वेद को श्रुति भी कहा गया है। आदि ऋषियों की वाणी के पीछे अर्थ दौड़ता-फिरता है। ऋषि अर्थ के पीछे कभी नहीं दौड़ते ’ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थाेऽनुधावतिः’। निष्कर्ष यह है कि तपस्या से पवित्र ’अंतज्र्योति सम्पन्न मन्त्रद्रष्टा व्यक्तियों की संज्ञा ही ऋषि है। जो ज्ञान के द्वारा मंत्रो को अथवा संसार की चरम सीमा को देखता है, वह ऋषि कहलाता है। ऋषि एक बहुविकल्पी शब्द है। आधुनिक बातचीत में मुनि, योगी, सन्त अथवा कवि इनके पर्याय नाम हैं। पराशर, दुर्वासा, वेदव्यास, शुकदेव, धौम्य, वसिष्ठ, परशुराम, किंदम तथा अगस्त्य आदि अनेक ऋषि प्राचीन भारतीय समाज में प्रसिद्ध थे। ऋषि भारत की प्राचीन परम्परा के अनुसार श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने वाले जनों को कहा जाता है। सामान्यतः वेदों की ऋचाओं का साक्षात्कार करने वाले ऋषि कहे जाते थे। ऐसे व्यक्ति तो सम्यक आहार-विहार आदि करते हुए ब्रह्मचारी रहकर संशय और से परे हैं और जिसके श्राप और अनुग्रह फलित होने लगे हैं उस सत्यप्रतिज्ञ और समर्थ व्यक्ति को ऋषि कहा गया है। ऋषि का स्थान तपस्वी और योगी की तुलना में उच्चतम होता है। अमरसिंह द्वारा संकलित प्रसिद्ध संस्कृत समानार्थी शब्दकोश में सात प्रकार के ऋषियों का उल्लेख है:- ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि और राजर्षि। ऋषि का स्थान तपस्वी और योगी की तुलना में उच्चतम होता है। अमरसिंह द्वारा वैदिक काल में ये सात प्रकार के ऋषिगण होतेे थे। उनके सात प्रकार हैं - व्यासादि महर्षि, भेलादि परमर्षि, कण्वादि देवर्षि, वसिष्ठादि ब्रह्मर्षि, सुश्रुतादि श्रुतर्षि, ऋतुपर्णादि राजर्षि और जैमिनि आदि काण्डर्षि। अमर कोष अन्य प्रकार के संतों, संन्यासी, परिव्राजक, तपस्वी, मुनि, ब्रह्मचारी, यती इत्यादि से ऋषियों को अलग करता है।