‘कारण कार्य सम्बन्धः प्रतीत्यसमुत्पाद‘‘ बुद्धचरितम् के आलोक में
डाॅ0 प्रीति त्रिपाठी
भारतीय दर्शन में तार्किक जिज्ञासा की प्रवृत्ति रही है। मनीषियों की इसी जिज्ञासा के कारण सृष्टि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विमर्श होता रहा है। सृष्टि की जिज्ञासा के कारणता सिद्धान्त को विभिन्न दार्शनिकों ने अलग-अलग नाम दिया है। भारतीय दर्शन में दो तरह की दार्शनिक परम्पराएँ दृष्टिगोचर होती है। 1. आस्तिक दर्शन 2. नास्तिक दर्शन। भारतीय परम्परा में इन आस्तिक एवं नास्तिक पदों को परिभाषित करने के आधार वेद प्रामाण्य की स्वीकृति एवं अस्वीकृति से है। नास्तिक को परिभाषित करते हुए कहा गया है ‘‘नास्तिकों वेदनिन्दकः‘‘। इस प्रकार सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व एवं उत्तर मीमांसा ये छः आस्तिक दर्शन है एवं चार्वाक जैन एवं बौद्ध नास्तिक दर्शन है। प्रस्तुत शोधपत्र में हम सभी दर्शन के कारणता सिद्धान्त पर विहंगम दृष्टि डालते हुए बौद्धदर्शन के कारणता सिद्धान्त पर विशेष चर्चा करेंगे जिसका उल्लेख महाकवि अश्वघोष ने अपने ग्रन्थ बुद्धचरितम् में ‘प्रतीत्यसमुत्पाद‘ नाम से किया है।