हम आचार्य द्विवेदी के नवीन विचारों को निम्नलिखितरूपेण देख सकते हैं प्राचीन कव्यशास्त्रीय आचार्यों ने जिन ग्रन्थों को प्रतिपादित किया है उनमें कुछ प्रयोजन अवश्य दिए हैं परन्तु आधुनिक संस्कृत साहित्य के सुप्रसिद्ध व सुप्रतिष्ठित आचार्य रेवाप्रसाद द्विवेदी ने काव्य रचना के प्रयोजन के विषय में अत्यन्त स्वतन्त्र व भिन्न विचारों को प्रतिपादित किया है। आचार्य द्विवेदी के अनुसार अलङ्कृत अर्थ ज्ञान मात्र, कवि की दृष्टि, शब्दार्थ के ज्ञान पर आधारित काव्य-लक्षण तथा काव्यधर्म के आधार को ‘काव्य’ कहते हैं। आचार्य द्विवेदी के मत में काव्य का प्रयोजन युगावश्यकतापूर्ति, राष्ट्रप्रबोध एवं स्वधर्म रक्षण है और साथ ही रस स्वरूप औपम्यादि उक्ति यह अर्थालङ्कारों की चमत्कृति से सम्बद्ध है। गुणोक्ति यह माधुर्य, ओज, प्रसाद की स्थिति में स्वीकार की जाती है। अर्थान्तरोक्ति यह व्यङ्ग विषयक चमत्कृति में रहती है। वस्तूक्ति विभावानुभावसञ्चारि के निवेषण से काव्य में वस्तूक्ति का सञ्चार होता है। अतएव आचार्य द्विवेदी ने एक वाक्य में ही सम्पूर्ण ‘रस’ तत्त्वों को समाहित कर दिया है- ‘भावसंयुता चिदेव रस’।