वस्तु की प्रतिनिधित्व कर्ने वाली सजीव वा निर्जीव वस्तुको प्रतीक कहा जाता हैं। अंग्रेजी का सिंबोल (Symbol) शब्द का विकास ग्रीक क्रिया पद से हुआ हैं। इसका मूल अर्थ दो वस्तुओं को जोडना वा तुलना करना हैं। प्रतीक के द्वारा व्यक्त अर्थ और अन्य अर्थ के बीच सादृश्य की धारणा अन्तर्निहित होती हैं। प्रतीक का स्थूल रूप से विभाजन किया जाए तो पारम्परित प्रतीक और वैयक्तिक प्रतीक दो प्रकारके होते हैं। गौण रूप में प्रतीकों को कवि दाँते की डिभाइन कमेडी ग्रन्थ के आधार में अभिधात्मक, रूपकात्मक, आलंकारिक और सादृश्यगत चार स्तर में विभाजन किया गया हैं। पल इल्म मोरे ने भी तात्पर्यात्मक, रूपकात्मक, स्मारक और धार्मिक प्रतीक के आधार में प्रतीकों का चार स्तर ही स्वीकारा हैं। साहित्यिक लेख वा कृति में प्रयोग किए गए प्रतीकात्मक शब्दों को अध्ययन करने वाली वाद को प्रतीकवाद कहा जाता हैं। प्रतीक के सहयोग से व्यक्त कराया गया वा प्रतीक की माध्यम से व्यक्त होने वाली वस्तु, विषय, भाव आदिका अध्ययन प्रतीकात्मक अध्ययन कहा जाता हैं। प्रतीक के आधार में भारतीय साहित्यको देखा जाए तो इसका प्रयोग प्राचीन काल से होता आ रहा हैं। वैदिक काल से ही प्रतीकात्मक प्रयोग पाया जाता हैं। काव्यों में बिम्ब और प्रतीक परस्पर सम्बद्ध रहते हैं। महाकवि कालिदास के चाहे काव्य हो या नाटक अभिव्यञ्जना कि दृष्टि से ससक्त, काव्यसौंदर्य एवं आनन्दानुभूति सम्पन्न, अभिव्यजनामूलक एवं आलंकारिक हैं। कालिदास की मेघदूतम् में बिम्बों की योजना अलौकिक चमत्कार सम्पन्न हैं अतः यहाँ प्रतीकों का भी चमतकार देखा जाता हैं। इसी को आधार मानते हुए कालिदास की मेघदूतम् काव्य के प्रतिनिधि श्लोकों का इस लेख में प्रतीकात्मक अध्ययन किया जाएगा।