शतसाहस्रीसंहितामहाभारत के भीष्मपर्व में संकलित श्रीकृष्ण द्वारा कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को दिए गए उपदेश “श्रीमद्भगवतगीता“ नाम से प्रसिद्ध हैं। अठारह अध्यायों एवं सात सौ श्लोकों में निबद्ध यह उपदेश शिक्षण के स्वरूप एवं पद्धति का परिचायक है।प्रस्तुत शोधपत्र में षिक्षक श्रीकृष्ण द्वारा शिष्य अर्जुन को जिस पद्धति से शिक्षित किया गया उसी का विवेचन करते हुए गीता के आधार पर शिक्षण का स्वरूप, शिक्षक व शिष्य के कत्र्तव्य, शिक्षक व शिष्य के सम्बन्ध एवं वर्तमान शिक्षण पद्धति से गीतानुसारिणी शिक्षण पद्धति की तुलना की गई है। शिक्षण के स्वरूप का विवेचन पांच मुख्य क्रियाओं के आधार पर किया गया है वे है-शारीरिकी, प्राणिकी, मानसिकी, आन्तरात्मिकी और आध्यात्मिकी। तदनन्तर गीता के उद्धरणों द्वारा यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया है कि सफल शिक्षण वही है जिसमें शिक्षक शिष्य के प्रति स्नेहभाव युक्त हो व शिष्य शिक्षक के प्रति निष्ठावान श्रद्धावान व समर्पित हो, दोनों में परस्पर सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध हो। गीता की शिक्षण पद्धति का सार है “शिक्षकः तु मार्गदर्शकः न तु निर्देशकः”। शिक्षण की परिणति तभी है जब अर्जुन की भांति शिष्य शिक्षक से कहे-”नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करष्यिे वचनं तव”।