गौरवशाली अतीत और महत्त्वाकांक्षी भविष्य की भाषा के रूप में संस्कृत का आलोचनात्मक अध्ययन
डाॅ. श्रुतिकान्त पाण्डेय
संस्कृत अपने उद्भव से ही ज्ञान, सम्मान और विद्वत्समाज की भाषा रही है। गीर्वाणि, देववाणी, सुरभाषा से लेकर प्राचीनतम, सुव्यवस्थित और वैज्ञानिकभाषा जैसे गुणवाचक अभिधानों से स्पष्ट है कि यह अपनी उत्पत्ति से ही सर्वोत्कृष्ट, तार्किक और सक्षम माध्यम रही है। आज के नितपरिवर्तनशील संसार में भी संस्कृत न केवल प्रासंगिक अपितु जिज्ञासा और शोध का विषय है। अपने व्याकरण, शब्दभण्डार और सृजनक्षमता से संस्कृत आज भारत ही नहीं विश्वसमुदाय की ग्राह्य बन चुकी है।
संस्कृत अपने आध्यात्मिक, वैज्ञानिक, सामाजिक, साहित्यिक, दार्शनिक, नैतिक, तकनीकी, कलात्मक और व्याकरणिक ज्ञानभण्डार से विश्वभर के जिज्ञासुओं को आकर्षित कर रही है। वेद से उपनिषद और व्याकरण से विज्ञान तक विविध विषयों के अध्येता संसार के हर कोने में संस्कृताराधना कर रहे हैं। इसे मृत, प्राचीन या अध्यात्म तक सीमित बताने वालों को संस्कृत अध्येताओं की बढ़ती संख्या स्वयमेव कूपमण्डूक प्रमाणित कर देती है। सुप्रसिद्ध मानवविद् और मनोवैज्ञानिक हरबर्ट स्पैन्सर की ‘‘सरवाइवल ऑफ द फिटस्ट’’ यानि ‘समायोजित की उत्तरजीविता’ उक्ति संस्कृत भाषा पर पूरी तरह सटीक बैठती है।
संस्कृत की प्रशस्ति में आर्थर शोपेनहावर, वॉरेन हेस्टिंग्स, वॉल्टेयर, सर विलियम जॉन्स आदि की उक्तियाँ पुरानी हो चली है। आज इसके प्रशंसकों की गिनती नामों नहीं; संस्थानों, विश्वविद्यालयों, देशों और अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय तक व्यापक है। इसलिए संस्कृत के भारतीय अनुशास्ताओं के लिए हीनता और संकीर्णता से बाहर आकर संस्कृतगौरव से अभिभूत होने का समय आ चुका है। भारत की सरकार संस्कृत को उसके गौरवानुरूप स्थान सुनिश्चित करने के लिए आगे बढ़ रही है। इस परिवेश में समस्त संस्कृतानुरागी निःशंक होकर स्तोत्रपाठ, यागानुष्ठान, आयुर्वेद, योग, अनुसंधान, विज्ञान, कम्प्यूटर, प्रबन्धन, तकनीक, साहित्य, दर्शन, अध्यात्म इत्यादि अन्यान्य माध्यमों से संसार के संतप्तमानस के आधि-व्याधि उपशमन और अभ्युदय-निःश्रेयस समाधान के लिए स्वयं को प्रस्तुत करें।