धर्मी से रक्षित रक्षा किया गया धर्म अर्थात् स्वधर्म धर्मी की रक्षा करता है अतएव धर्म का लोप करना धर्मी के लिए हितकर नहीं है क्योंकि धर्म का लोप धर्मी के नाश का कारण बन जाता है।
धर्मी के रक्षक उस धर्म के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए मधुसूदन झा महाभाग कहते हैं कि–
धर्मो हि वीर्यं ध्रियते हि धर्म:, धर्मो धृतो धारयते हि रुपम्।
धर्म वस्तु का वीर्य है अभिप्राय वस्तु का सामर्थ्य है जो उसकी सतत रक्षा करता है। वस्तु के रक्षक उस वीर्य को धर्म कहते हैं क्योंकि वह वस्तु के द्वारा धृत होता है अर्थात् धारण किया जाता है अतः “ध्रियते इति धर्मः” इस निर्वचन से धर्म हुआ।
धर्मशास्त्रों की शिक्षा से ही भारतीय अपने सदाचरण से देवत्व को प्राप्त होते हैं और हमारा यह भारत वर्ष देवभूमि के नाम से अभिवन्दित हुआ है। धर्मशास्त्र ही कर्ममार्ग को निर्देशित करते हैं। संसार में कर्म हीं अभ्युदय और पतन का कारण होता है।