सरà¥à¤µà¤ªà¥à¤°à¤¥à¤® आयà¥à¤°à¥à¤µà¥‡à¤¦ कà¥à¤¯à¤¾ है? यह जानना अति आवशà¥à¤¯à¤• है। जो शासà¥à¤¤à¥à¤° आयॠका जà¥à¤žà¤¾à¤¨ कराता है उसे आयà¥à¤°à¥à¤µà¥‡à¤¦ कहते है यह अथरà¥à¤µà¤µà¥‡à¤¦ का उपवेद है। इसी कारण अथरà¥à¤µà¤µà¥‡à¤¦ के कई उदà¥à¤µà¤°à¤£ इसमें डाले गये है। आयà¥à¤°à¥à¤µà¥‡à¤¦ के दो पà¥à¤°à¤¯à¥‹à¤œà¤¨ हैं सरà¥à¤µà¤ªà¥à¤°à¤¥à¤® सà¥à¤µà¤¸à¥à¤¥ वà¥à¤¯à¤•à¥à¤¤à¤¿ के सà¥à¤µà¤¾à¤¸à¥à¤¥à¥à¤¯ की रकà¥à¤·à¤¾ करना। दूसरा आतà¥à¤° की रकà¥à¤·à¤¾ करना ।
आयà¥à¤°à¥à¤µà¥‡à¤¦ के पà¥à¤°à¤¥à¤® पà¥à¤°à¤¯à¥‹à¤œà¤¨ में आचारà¥à¤¯à¥‹à¤‚ ने सदवृत, सà¥à¤µà¤¸à¥à¤¥à¤µà¥ƒà¤¤ समà¥à¤¯à¤• ऋतà¥à¤šà¤°à¥à¤¯à¤¾ का वरà¥à¤£à¤¨ किया है। वà¥à¤¯à¤•à¥à¤¤à¤¿ को सà¥à¤µà¤¸à¥à¤¥ रखने के लिठपरà¥à¤¯à¤¾à¤µà¤°à¤£ का शà¥à¤¦à¥à¤µ रहने पर ही इन उदà¥à¤¦à¥‡à¤¶à¥à¤¯à¥‹à¤‚ की पà¥à¤°à¤¾à¤ªà¥à¤¤à¤¿ हो सकती है। अथरà¥à¤µà¤µà¥‡à¤¦ जिसका कि आयà¥à¤°à¥à¤µà¥‡à¤¦ उपवेद है उस अथरà¥à¤µà¤µà¥‡à¤¦ में परà¥à¤¯à¤¾à¤µà¤°à¤£ संघटक ततà¥à¤µà¥‹à¤‚ में तीन पà¥à¤°à¤®à¥à¤– हैं- जल वायॠव वनसà¥à¤ªà¤¤à¤¿à¥¤ ये ही परà¥à¤¯à¤¾à¤µà¤°à¤£ का निरà¥à¤®à¤¾à¤£ करते हैं।
तà¥à¤°à¥€à¤£à¤¿ छनà¥à¤¦à¤¾à¤‚सि कवयो वि येतिरेू, पà¥à¤°à¥‚रूपं दरà¥à¤¶à¤¤à¤‚ विशà¥à¤µà¤šà¤•à¥à¤·à¤£à¤¾à¤®à¥¤ 1
आपो वाता ओषधयः तानà¥à¤¯à¥‡à¤•सà¥à¤®à¤¿à¤¨ à¤à¥à¤µà¤¨ अरà¥à¤ªà¤¿à¤¤à¤¾à¤¨à¤¿à¥¤à¥¤(अथरà¥à¤µ 18/1/17)
परà¥à¤¯à¤¾à¤µà¤°à¤£ को हम दो à¤à¤¾à¤—ों में बांट सकते हैं।
1. धारक परà¥à¤¯à¤¾à¤µà¤°à¤£à¥
2. पोषक परà¥à¤¯à¤¾à¤µà¤°à¤£
धारक परà¥à¤¯à¤¾à¤µà¤°à¤£ के अनà¥à¤¤à¤°à¥à¤—त सोम (जल) सूरà¥à¤¯ और वायॠआते है जो हमारे शरीर के वात पितà¥à¤¤ और कफ को संचालित करते हà¥à¤¯à¥‡ देह को धारण करते है।
विसरà¥à¤—ादान विकà¥à¤·à¥ˆà¤ªà¥‡à¤ƒ सोमसूरà¥à¤¯à¤¾à¤¨à¤¿à¤²à¤¸à¥à¤¤à¤¥à¤¾à¥¤ 2
धारयनà¥à¤¤à¤¿ जगददेह कफपितानिलसà¥à¤¤à¤¥à¤¾à¥¤à¥¤(सà¥0सू021/8)
पोषक परà¥à¤¯à¤¾à¤µà¤°à¤£ के अनà¥à¤¤à¤°à¥à¤—त आता है पादप वनसà¥à¤ªà¤¤à¤¿ जगत कà¥à¤¯à¥‹à¤‚कि पादप जगज ही सोम(जल) सूरà¥à¤¯ व वायॠसे सà¥à¤µà¤¤à¤‚तà¥à¤° ऊरà¥à¤œà¤¾ पà¥à¤°à¤¾à¤ªà¥à¤¤ कर उसे गà¥à¤°à¤¹à¤£ योगà¥à¤¯ सà¥à¤¥à¤¿à¤° ऊरà¥à¤œà¤¾ में परिवरà¥à¤¤à¤¿à¤¤ करते है। जिसे गà¥à¤°à¤¹à¤£ करने से हमारे शरीर का पूरà¥à¤£ पोषक संà¤à¤µ होता है। इन धारक और पोषक परà¥à¤¯à¤¾à¤µà¤°à¤£ के संतà¥à¤²à¤¨ से हम सà¥à¤µà¤¸à¥à¤¥ रहते हैं। परनà¥à¤¤à¥ आज दौड़ धूप के कारण हम वायॠजल देश और काल जैसे परà¥à¤¯à¤¾à¤µà¤°à¤£ के घटकों को पà¥à¤°à¤¦à¥‚षित करते जा रहें है। आचायà¥à¤° चरक के अनà¥à¤¸à¤¾à¤° इन चार के विकृत होने पर à¤à¤• ही समय पर à¤à¤• ही समान लकà¥à¤·à¤£ वाले रोग उतà¥à¤ªà¤¨à¥à¤¨ होकर समाज को नषà¥à¤Ÿ कर देते हैं।