अर्थात् क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से अस्पृष्ट (रहित, असम्बद्ध) एक विशेष प्रकार का पुरुष ’ईश्वर’ कहलाता है। व्यासदेव लिखते हैं कि -
’’अविद्यादयः क्लेशाः - सपुरुष पिशेष ईश्वरः ।’’
ईश्वर क्लेश, कर्म, विपाक आशय आदि से रहित है तथा जय - पराजय, कैवल्य तथा बन्धन आदि से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। ईश्वर की सामथ्र्य की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। ईश्वर ’तु सदैव मुक्तः सदैवेश्वर इति।
महर्षि पतंजलि ’ईश्वर की सर्वज्ञता’ को अधोलिखित सूत्र से स्पष्ट करते हैं -
’’तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् ।’’
श्रुति आदि शास्त्रों में ’पुरुषविशेष’ के ’शिव’, ईश्वर आदि संज्ञाविशेष प्रसिद्ध हैं। महर्षि पतंजलि ईश्वर की त्रैकालिक गुरुता को अधोलिखित सूत्र से स्पष्ट करते हैं -
’’पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ।’’
ैशारदीकार तथा योगवार्Ÿिाककार ईश्वर की
’’वाच्यं ईश्वरः प्रणवस्य ... प्रति जानते ।’’
अर्थात् प्रणव का वाच्य ईश्वर है अर्थात् प्रणव वाचक है और ईश्वर वाच्य है। प्रणव एवं ईश्वर में वाच्य वाचक सम्बन्ध है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आत्मा के ईश्वर - विषयक - चिन्तन अत्यन्त सदृश स्वात्मा के साक्षात्कार का हेतु है न कि दूसरे के आत्मा के साक्षात्कार का हेतु । अतः ईश्वर - विषय - चिन्तन का स्वरूप दर्शन भी एक संगत फल है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि ईश्वर प्रणिधान से चिŸा एकाग्र होता है, आने वाले अन्तरायों का विनाश हो जाता है जीव स्वरूप को जानते हुए कैवल्यान्मुख हो जाता है।