क्षेमेन्द्र के विविध ग्रन्थों में प्राप्त वास्तुविद्या के सन्दर्भ
Dr. Shubh Kumar
’वास्तु’ शब्द की उत्पत्ति वस् धातु से हुई है जिसका अर्थ है निवास स्थान। वास्तु विद्या के गृह, प्रासाद, देव नगर, पुर, दुर्ग आदि अनेक भेद हैं। आचार्य क्षेमेन्द्र के ग्रन्थों में देव वास्तु का ही मुख्य उल्लेख है। इनकी रचनाओं में हिन्दू मन्दिर और बौद्ध विहारों का वर्णन मिलता है। जैसे कलाविलास में उज्जयिनी के प्रसिद्ध मन्दिर महाकालेश्वर का वर्णन है। समयमातृका ग्रन्थ में सात मठ और भद्रा के मन्दिर का उल्लेख है। राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि क्षेमेन्द्र के समकालीन राजा अनन्त की माता श्रीलेखा ने अनेक मठों और अग्रहारों का निर्माण करवाया। अनन्त की पत्नी रानी सूर्यमती ने वितस्ता के तट पर गौरीश्वर मन्दिर के निर्माण के साथ सुभटा मठ का निर्माण करवाया। इस का उल्लेख कवि कलहण ने ‘विक्रमांक देवचरित’ में किया है। राजतरंगिणी में मालवा नरेश भोज द्वारा कपटेश्वर मन्दिर और कुण्ड के निर्माण का चित्रण मिलता है। इस प्रकार आचार्य क्षेमेन्द्र के कलाविलास, समयमातृका आदि ग्रन्थों में, राजतरंगिणी में और समकालिन साहित्य आदि ऐतिहासिक ग्रन्थों में भारतीय वास्तु कला के अन्तर्गत देववास्तु या मन्दिर निर्माण कला आदि का समृद्ध स्वरूप मिलता है।