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International Journal of Sanskrit Research
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International Journal of Sanskrit Research

2018, Vol. 4, Issue 2, Part A

रामायणकालीन वास्तुशास्त्र में ज्योतिषशास्त्र की प्रासांगिकता

निमिता कन्याल

भारतीय संस्कृति और साहित्य में वेदो के पश्चात आदिकवि वाल्मीकि विरचित रामायण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। रामायण का ज्ञान स्रोत एक ऐसा स्रोत है जो शताब्दियों पर शताब्दियाँ बीत जाने पर भी भारतवर्ष में नाममात्र को सूखता नहीं है। रामायण आर्ष काल के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के रूप में आज भी भारतीय जनमानस में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। अतः ठीक ही कहा गया है-
‘‘यावत स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च मही तले।
तावद् रामायण कथा लोकषु प्रचरिष्यति।।
रामायणकालीन समाज को मानव जीवन की सामाजिक राजनैतिक धार्मिक एवं आर्थिक स्थितियों का आदर्श कहा जा सकता है। तत्कालीन लोग कलात्मक अभिरूचि सम्पन्न थे। वैदिक युग की सरल एवं प्रारम्भिक कलात्मक प्रवृत्ति रामायण काल में आकर निःसन्देह ही एक उच्चतर स्तर तक पहुँच गई। वाल्मीकि ने चित्रकला वास्तुकला, संगीत, नृत्यकला आदि के विषय मे पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत की है। वास्तुकला के क्षेत्र में रामायणकालीन भारतीय समाज ने आश्चर्यजनक प्रगति कर ली थीं। महर्षि वाल्मीकि द्वारा वर्णित नगरों दुर्गो तथा प्रासादों के वर्णन से यह स्पष्ट है कि उस समय वास्तु विद्या का एक व्यवस्थित एवं उन्नत रूप स्थिर हो चुका था।
वास्तुशास्त्र भारतीय ज्योतिष की समृद्ध और विेकसित शाखा है। इन दोनों में अंग अङगी भाव सम्बन्ध है। जैसे शरीर का अपने विविध अंगों के साथ सहज और अटूट सम्बन्ध होता है। ठीक उसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र का अपनी सभी शाखाओं सामुद्रिक शास्त्र, स्वरशास्त्र एवं वास्तुशास्त्र के साथ सम्बन्ध है।
ज्योतिष शास्त्र का उल्लेख वास्तुशास्त्र में उसकी स्थिति एवं महत्ता बताने के लिए किया गया है। ज्योतिष एवं वास्तुशास्त्र में इतनी निकटता का कारण यह है कि दोनों का उद्भव वैदिक संहिताओं से हुआ है, दोनों का विकास भारतीय जीवन दर्शन से प्रेरित रहा है। दोनों शास्त्रों का लक्ष्य मानवमात्र को सुविधा और सुरक्षा देना है। दोनों ही शास्त्रों का प्रतिपाद्य विषय जीवन में घटित होने वाला घटनाक्रम है।
वाल्मीकि रामायण का संक्षिप्त परिचय
महर्षि वाल्मीकि द्वारा विरचित रामायण आदि महाकाव्य के नाम से जाना जाता है। वेदों के पश्चात् सर्वप्रथम जिस अनुष्टुप वाणी का प्रवर्तन हुआ, वह निःसन्देह आदिमहाकाव्य है। महर्षि वाल्मीकि के द्वारा विरचित होने के कारण इसे आर्षकाव्य भी कहा जाता है। ’’वेदोऽखिलो धर्ममूलम’’ इस कथन के अनुसार वेद स्वरूप रामायण भी धर्म का मूल है।
संस्कृत वाऽमय में रामायण की गणना विशिष्ट ग्रन्थ के रूप में की जाती है। रामायण का वण्र्य विषय विस्तृत तथा दृष्टिकाण व्यापक है। इस महाकाव्य की कथा वस्तु सात काण्ड़ों में विभक्त है-
01- बालकाण्ड़
02- आयोध्या काण्ड़
03- अरण्य काण्ड़
04- किष्किकन्धा काण्ड़
05- सुन्दर काण्ड़
06- युद्ध काण्ड़
07- उत्तर काण्ड़
इन काण्ड़ों में कवि ने मानव जीवन के विविध पक्षों को अंकित किया है। कवि ने राम राज्य के माध्यम से आदर्श राज्य का रूव प्रस्तुत करते हुए प्रत्येक पहलू को स्पष्ट किया है।
Pages : 27-29 | 1687 Views | 466 Downloads


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How to cite this article:
निमिता कन्याल. रामायणकालीन वास्तुशास्त्र में ज्योतिषशास्त्र की प्रासांगिकता. Int J Sanskrit Res 2018;4(2):27-29.

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