प्राचीन भारतीय राजनीतिक - दर्शन में सेना का कितना अधिक महत्व था, यह इस बात से स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय राजनीतिक विचारक इसे राज्य के सात अंगो में से एक मानते रहे हैं। मनुस्मृति में इन सात अंगों को ’सप्तप्रकृति’ कहा गया है। आचार्य कौटिल्य ने भी अपने ग्रन्थ ’अर्थशास्त्र में सप्तप्रकृति’ का वर्णन इसी रूप में किया है।
वाल्मीकि-रामायण में भी देश-रक्षार्थ सेना की आवश्यकता पर बल दिया गया है। रामायण में यद्यपि राज्य के सप्तांग - सिद्धान्त का एकत्र विवरण प्राप्त नहीं होता, किन्तु रामायणकार ने स्थान-स्थान पर उन विभिन्न अंगों का आवश्यकतानुसार वर्णन अवश्य किया है।
वाल्मीकि - रामायण में अधिकतर स्थलों पर ’सेना’ के लिए ’बल’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। कुछ ही स्थलों पर ’सेना’ शब्द का प्रयोग मिलता है। रामायण में सेना के दो रूप मिलते हैं - एक स्थायी व दूसरा अस्थायी। रामायणकार ने सेना के चार स्रोतों का वर्णन किया है -
मित्राटविबलं चैव मौलभृत्यबलं तथा ।
सर्वमेतद् बलं ग्राह्यं वर्जयित्वा द्विषद्वलम् ।8
सैन्य-विभाजन की दृष्टि से रामायण युग में चार प्रकार की सेनाओं का वर्णन प्राप्त होता है। पदाति, रथ, अश्व और गज सेना आती थी।
रामायण महाकाव्य में सेना के लिए ’वाहिनी’ ’चमू’ तथा अक्षौहिणी आदि शब्दों का प्रयोग स्थान-स्थान पर किया गया है। रामायण में सैन्य-संगठन में राजा के बाद सेनापति का स्थान हुआ करता था। सैन्य संगठन की दृष्टि से सर्वोच्च पदाधिकारी सम्भवतः सेनानायक अथवा सेनापति कहा जाता था।
रामायण युग में सैनिक -अनुशासन पर विशेष ध्यान दिया जाता था। रामायणकाल में कठोर सैन्य अनुशासन के साथ-साथ सैनिकों के नियमित वेतन भुगतान और उनकी सुख-सुविधा की ओर पर्याप्त ध्यान दिया जाता था। वर्तमान समय मेें भी हम देखते हैं कि देश का काफी पैसा देश की रक्षा के लिए सेना पर व्यय किया जाता है।