तथाकथित धार्मिक लोगों ने, धर्म के ठेकेदारो ने, तथाकथित झूठे समाज ने, तथाकथित झूठे परिवार ने यही समझाने की कोशिश की है कि सेक्स, काम, यौन, अपवित्र है, घृणित है। नितांत पागलपन की बातें है। अगर यौन घृणित और अपवित्र है, तो सारा जीवन अपवित्र और घृणित हो गया। अगर सेक्स पाप है तो पूरा जीवन पापमय हो गया, पूरा जीवन निंदित कंडेम्ड हो गया। अगर जीवन ही पूरा निंदित हो जाएगा, तो कैसे प्रसन्न लोग उत्पन्न होंगे, कैसे सच्चे लोग उपलब्ध होंगे ? जब जीवन ही पूरा का पूरा पाप है तो बुद्ध, महावीर, राम, कृष्ण, क्राइस्ट आदि पवित्रात्मा कैसे होंगे।
सेक्स को गाली न दे, सेक्स के पास ऐसे जाएं, जैसे मंदिर के पास। पत्नी को ऐसा समझें, जैसे कि वह प्रभु है। पति को ऐसा समझें कि जैसे कि वह परमात्मा है। और गंदगी में, क्रोध में, कठोरता में, द्वेष में, ईष्र्या में, जलन में चिंता के क्षणों में कभी भी सेक्स के पास न जाएं। क्योंकि स्रष्टा के निकटतम है। अगर हम पवित्रता से, प्रार्थना से सेक्स के पास जाएं तो हम परमात्मा की झलक को अनुभव कर सकते हैं, लेकिन हम तो सेक्स के पास एक घृणा, एक दुर्भाव, एक कंडमनेशन के साथ जाते हैं। जितना आदमी चिंतित होता है, जितना परेशान होता है, जितना क्रोध से भरा होता है, जितना घबराया होता है, जितना एंग्विश में होता है, उतना ही ज्यादा वह सेक्स के पास जाता है। लेकिन आनंदित आदमी सेक्स के पास नहीं जाता। दुःखी आदमी सेक्स की तरफ जाता है। क्योंकि दुःख को भुलाने के लिए इसको एक मौका दिखाई पड़ता है। लेकिन स्मरण रखें कि जब आप दुःख में जाएंगे, चिंता में जाएंगे उदास, हारे हुए, क्रोध में, लड़े हुए जाएंगे, तब आप कभी भी सेक्स की उस गहरी अनुभूति को उपलब्ध नहीं कर पाएंगे, जिसकी कि प्राणों में प्यास है। उस अध्यात्मिक तल की संतान वहाँ नहीं मिलेगी। इसलिए दीवाल खड़ी हो जाती है और परमात्मा का जहाँ कोई अनुभव नहीं हो पाता।