प्राचीन भारत में सामान्य धर्म को ही वास्तविक धर्म माना जाता रहा, किन्तु धर्म का ब्राह्य रूप भी उस समय प्रचलित थे। जिनका विधि-विधान युग-युग में परिवर्तित होता रहता था। इस बाह्य रूप को ही सम्प्रदाय, मत या पन्थ कहा जाता था। परवर्तीकाल में साम्प्रदायिक धर्म को ही प्रमुखता प्राप्त हो गयी और सामान्य धर्म को धर्म न कहकर केवल नैतिकता कहा जाने लगा। इस साम्प्रदायिक धर्म का स्वरूप भारत के वैदिक काल से लेकर आज तक निरन्तर परिवर्तित होता रहा है और उसके विविध रूपान्तर प्रचलित रहे हैं।