संस्कृतभाषा के शब्दों का वैशिष्ट्य यह है कि प्रायः व्युत्पत्त्लिभ्य अर्थ में अपनी परिभाषा भी व्यक्त करते हैं। यह तथ्य ‘साहित्य’ और ‘धर्म’ इन दोनों शब्दों में भी अन्वर्थक है। साहित्य हैं सहित का भाव और सहित है- हित के साथ (हितेन यह सहितम्)। इसी प्रकार धर्म शब्द धृ धातु-से निपन्न है, जिसका अर्थ-धारण करना है-(धरति धियते व धर्मः)। स्वभाव, न्याय, आधार आदि इसके अनेक पर्याय है। किसी वस्तु की विधायक आन्तरिक वृत्ति को धर्म कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ का व्यक्तित्व जिस वृत्ति पर निर्भर है, वही उस पदार्थ का धर्म है। धर्म की कमी से उस पदार्थ का क्षय होता है और धर्म की वृद्धि होती है। बेले के फूल का धर्म सुवास है, उसकी वृद्धि, उसकी कली का विकास है, उसकी कमी फूल का ह्रास ह। धर्म की परिकल्पना भारत की अपनी विशेषता है। मानवीय व्यवहार आदि के संदर्भ में धर्म अत्यन्त व्यापक अर्थ में भारतीय मनीषियों द्वारा प्रयुक्त होता रहा है, जो वैदिक अनुष्ठान, कर्तव्य, धर्म, विधि, नियम, पूजापद्धति आदि के पर्याय के रूप में प्रसिद्ध है। धात्वर्थ की दृष्टि से इसका केन्द्रीय अर्थ है-जड़ तथा चेतन द्वारा धारित तत्व। साहित्य के साथ सामाजिक उत्तर पद के रूप में धर्म का अर्थ प्रस्तुत लेख में स्व-भाव मानकर विवेचन किया गया है।