परमब्रह्म द्वारा सृष्टि की गयी विविध योनि तथा प्राणिओं का वासस्थान पृथ्वीलोक है। सभी प्राणिओं में आहार-निद्रा-भय-मैथुन समानरूप में स्थित है। परन्तु इन सभी जीवों में मनुष्य जीव ही सर्वश्रेष्ठ हैं, कारण एकमात्र धर्म ही मनुष्य को अन्य प्राणियों से तथा पशु से विशेष बनाता हैं। धर्म मानव को जीवन में उचित पथ, जीवनशैली, आचार, व्यवहार आदि निर्देश करता हैं। मानव जीवनशैली में संस्कार अतिमहत्त्वपूर्ण क्षेत्र है, वास्तव में देखा जाय तो मनुष्य का जीवन संस्कारों का ही क्षेत्र है। मनुष्य का मन को जिसप्रकार इन्द्रियों का लगाम कहा जाता हैं उसी प्रकार संस्कार भी मनुष्य जीवन का बन्धन होते है, क्योकिं बिना लगाम के इन्द्रियाँ इतस्ततः परिवर्तित होता रहते है। संस्कार रहित मनुष्य जीवन भी शृङ्खलाबद्ध नहीं होते है। इसीलिए मनुष्य की शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक उन्नति के लिए जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त भिन्न भिन्न संस्कारों का वर्णन प्राचीन ऋषि-मुनियों ने बहुत सुन्दर ढ़ग से की है। षोडशसंस्कारों में गर्भाधानसंस्कार का स्थान प्रथम है। प्राणी जिसप्रकार जन्म ग्रहण करते है उसीप्रकार मृत्यु को भी प्राप्त करते हैं, परन्तु ईश्वर ने पृथ्वी का सामञ्जस्य बनाये रखने के लिए सन्तति का विधान दिया है। सन्तनि के जन्म के लिए बीजवपन करना ही गर्भाधान संस्कार है। प्राचीन ऋषिओं के अनुसार शिशु की मन, स्वभाव, जीवनक्षेत्र आदि सूक्ष्मरूप में बीजवपन के समय में ही निधार्रित होते हैं। स्त्री-पुरुष के मिलन को केवल भोग-विलास की वस्तु न समझकर उत्तम सन्तान प्राप्ति के लिए भावना-शरीर-क्षण-काल आदि गर्भाधानसंस्कार के रूप में वर्णन किया गया है। इसीलिए गर्भाधान संस्कार विशेषरूप से महत्त्वपूर्ण है।