काव्यतत्त्वों की दृष्टि से वाल्मीकि रामायण अद्वितीय महाकाव्य है। अतएव विद्वानों ने इसे संस्कृत काव्यों की परिभाषा का आधार मानकर कतिपय लक्षणग्रन्थों का निर्माण किया है। महर्षि वाल्मीकि ने ऐसे समय में ग्रन्थ-रचना की जब उनके सम्मुख ऐसी कोई रचना नहीं थी, जो उनका पथ-प्रदर्शक कर सके। पुनरपि उन्होंने अपनी इस मौलिक कृति में प्रकृति-चित्रण, संवाद-संयोजन, विषय प्रतिपादन के साथ-साथ रस, अलंकारादि अन्यान्य काव्यीय तŸवों का यथा स्थान वर्णन करके परवर्ती आचार्यों का मार्ग प्रशस्त किया है। काव्य का परमार्थतः प्रयोजन रसास्वादमूलक आनन्दातिशय माना गया है। वाल्मीकि ने भी करुण रस रूपी आनन्द से प्रेरित होकर ग्रन्थ रचना की। यद्यपि आलोचक इस ग्रन्थ-रत्न में करुण रस के प्राधान्य को स्वीकारते हैं। लेकिन रस तŸव के सन्दर्भ में वाल्मीकि रामायण में वीरादि रसों के साथ प्रधानतः करुण रस ही आदि से लेकर अन्त तक सर्वत्र विद्यमान है। प्रस्तुत शोध पत्र को वाल्मीकि रामायण में उपलब्ध सभी रसों का अन्वेषण कर सहृदयों के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है।