शब्द एवं अर्थ का आश्रय लेकर जो काव्य की शोभा का संवर्धन करते हैं हारादि के समान वे अनुप्रास एवं उपमादि अलंकार कहे जाते हैं। जैसे अभिराजयशोभूषणम् के अलंकार प्रकरण में कहा भी गया है कि
शब्दार्थसंश्रिता ये वै काव्यशोभां प्रतन्वते।
हारादिवदलंकारास्तेऽनुप्रासोपमादयः।।
उनमें भी शब्द का आश्रय लेने वाले यमकादि शब्दालंकार हैं तथा उसी प्रकार अर्थाश्रित उपमादि अर्थालंकार हैं। सर्वप्रथम महामुनि भरत द्वारा चार ही अलंकारों का वर्णन मिलता है, परन्तु आगे चलकर अप्पय प्रणीत कुवलयानन्द में अलंकारों की संख्या सौ से भी अधिक हो गई। पहले भी यह अलंकार आचार्यांे द्वारा अपनी रूचि एवं इच्छा के ही अनुसार विविध रूपों में कल्पित किये गये। ठीक उसी प्रकार आज भी ये अलंकार नये नये रूपों में कल्पित किये जा रहे हैं। जिससे अलंकारो के भेदोपभेदों में उत्तरोत्तर वृद्धि दिखाई पडती है। भामह, दण्डी, रुद्रट, मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, जयदेव, अप्पयदीक्षित तथा पण्डितराज आदि के ग्रन्थों में इन अलंकारों का सर्वसम्मत विभाजन शब्दालंकार एवं अर्थालंकार के रूप में किया गया है। संस्कृत काव्यशास्त्र की परम्परा में अर्वाचीन संस्कृत आचार्यों ने जिस प्रकार अलंकारों का विवेचन किया है वह सहृदयों को आनन्दित करने वाला तथा नूतन प्रयास है। इसी शृंखला में प्रो. अभिराजराजेन्द्र मिश्र प्रणीत अभिराजयशोभूषणम् में भी शब्दालंकार तथा अर्थालंकार इन द्विविध अलंकारों का विवेचन किया गया है।