स्मृतियों में प्रतिपादित विधि व्यवस्था की वर्तमान काल में प्रासड़्गिकता
Dr. Atiya Danish
वस्तुतः स्मृतियों में जिस विधि व्यवस्था का प्रतिपादन किया गया है वहाँ की संस्कृति में धर्म की प्रधानता है और वह समाज मूल्यों पर आधारित है। समाज की संरचना इस आधार इस आधार पर की गई है कि मूल्यों की सर्वोच्चता बनी रहे और उनमें कोई गिरावट न आये। भारतीय समाज की आवश्यकता, परिस्थिति और परिवेश का ध्यान रखते हुए नीति और धर्म पर आधारित वर्णाश्रम व्यवस्था बनाई गई और उस व्यवस्था में मानव का जीवन हर प्रकार से सुरक्षित और नियन्त्रित हो इसकी व्यवस्था की गई है। धर्म जहाँ एक ओर आत्मा और परमात्मा के विषय में जानकारी देता है वहीं दूसरी ओर अनुशासित रहने का सन्देश भी देता है। मनुष्य और समाज अनुशासित रहे इसीलिए विधि व्यवस्था की गई। उल्लेखनीय है कि भारत विश्व का वह प्रथम देश है जहाँ उस सुदूर अतीत में भी स्मृतियों के रूप में लिखित विधान बनाया गया। उक्त विधि व्यवस्था की आधर स्थली जो स्मृतियां हैं वे एक सुदीर्घ कालावाधि तथा विस्तृत भौगोलिक परिधि की रचनाएं हैं। उक्त स्मृतियों में कहीं-कहीं मतवैविध्य का कारण स्मृतिकारों के सामाजिक दृष्टिकोण के प्रति विभिन्नता और चिन्तन के साथ-साथ उनके समय, परिस्थिति और बदलता हुआ परिवेश भी उसके लिए उत्तरदायी है। यही कारण है कि प्रथम स्मृतिकार मनु से प्रारम्भ कर अर्वाचीन स्मृतिकार की विधि व्यवस्था विषय में मूल भावना होने पर भी यंत्र-तंत्र आवश्यक परिवर्तन तथा भिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है। वर्तमान काल में भी विश्व में जहाँ-जहाँ लिखित संविधान हैं वहाँ संविधान में संशोधन की व्यवस्था भी की गई है। यही कारण है कि संविधानों में समय-समय पर संशोधन भी होते रहते हैं। स्मृतियों में प्रतिपादित विधि-व्यवस्था और वर्तमान कालीन संविधान में लगभग समानता हैं- समानता इस बात की है कि मौलिक अधिकार, व्यवहार, दण्ड, सम्पत्ति और जीवन से सम्बन्धित आवश्यक सम्बन्धों के निर्धारण के लिए कानून बनाने की व्यवस्था है। स्मृतियों में जिस प्रकार राजा को आवश्यकतानुसार (विधि उपलब्ध न होने पर) विधि बनाने का अधिकार था, उसी प्रकार वर्तमान काल में देश के न्यायालय को यह देखने का और निश्चित करने का अधिकार दिया गया है कि संसद जो कानून बनाती है, वह संविधान के अनुरूप है या नहीं और यदि नहीं है तो उसे गैरकानूनी घौषित कर देती है। कभी-कभी कानून उपलब्ध न होने की स्थिति में न्यायाधीश स्वयं कानून की व्याख्या पर नया कानून बना देते हैं श्रनकहम डंकम स्ंू जिसे कहते हैं। विधि की आवश्यकता हर समय रही है। प्राचीन काल से लेकर अब तक किसी न किसी रूप में कोई न कोई संस्था या व्यक्ति सार्वभौम सत्ता का अधिकारी रहा। भारत में सदा ही राजा को नियन्त्रित करने और तानाशाह बनने से रोकने के लिए सभा और समिति कार्य करती रही है। इसलिए भारत में कभी राजा निरंकुश नहीं हो सकता यद्यपि उसे इन्द्र, यम, कुबेर, अग्नि आदि देवों का अंश अर्थात् दैवी शक्ति सम्पन्न माना गया है। यूरोपीय देशों में राजा द्वारा में राजा द्वारा मुंह से बोला हुआ शब्द ही कानून था। उसके ऊपर कोई नियन्त्रण नहीं था इसी कारण यूरोपीय राजनैतिक विज्ञान ऐसे निरंकुश राजाओं के नामों से भरा पड़ा है। आधुनिक राजनैतिक विचारकों ने चिन्तन करने के पश्चात् कानून बनाने का अधिकार जन प्रतिनिधियों को सौंप दिया। फ्रांस की राज्य क्रान्ति के बाद जब राष्ट्रीय राज्यों का निर्माण होना प्ररम्भ हुआ तो लिखित कानून द्वारा शासन किया जाने लगा जबकि भारत में यह लिखित कानून मनुस्मृति के रूप में दो सहस्र वर्षों से भी अधिक प्राचीन है। स्पष्ट है कि स्मृति साहित्य में प्रतिपादित विधि-व्यवस्था पूर्णतया परिवर्तित काल में भी अनेक अंशों में प्रासङिगक है तो कुछ क्षेत्रों में मार्गदर्श भी। उदाहरणतया विधिवेता, विधि निर्धारक और कहीं-कहीं विधिकर्ता राजा केवल वंशपरम्परा के गौरव से ही उक्त अधिकारों को प्राप्त नहीं करता था, उसके लिए अपेक्षित योग्यता का होना आवश्यक था, उसे एक निर्धारित समय सारणी के अनुसार निश्चित पद्धति में जीवन-यापन करना होता था। उसका जीवन भोग का नहीं था, वास्तविक अर्थों में वह प्रजा के लिए था, प्रजा का था, सिंहासन चाहे वंश परम्परा से क्यों न मिला हो। वर्तमान काल में विधिवेत्ता, विधिकर्ता अधिकारियों के सन्दर्भ में भी ऐसा ही अनुशासन तथा नियमावली सर्वथा स्वागतयोग्य है।